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________________ श्री दशलक्षण व्रत कथा ******************************** आपको धन्य व स्वसम्पतिको सफल हुई समझता हैं। यह कदापि स्वप्न में भी अपनी ख्याति व यश नहीं चाहता और न पान देकर उसे स्मरण मला अधया । कभी किसी पर प्रगट ही करता है। वास्तवमें दान देकर भूल जाना ही दानीका स्वभाव होता है। इससे यह पुरुष सदा प्रसन्नचित रहता है | और मृत्युका समय उपस्थित होनेपर भी निराकुल रहता है। इसका चित्त धनादिमें फंसकर आर्स रौद्ररूप कभी नहीं होता और उसका आत्मा सद्गतिको प्राप्त होता है। (९) आकिंचन्य-बाह्य आभ्यंतर समस्त प्रकारके परिग्रहोंसे ममत्व भायोंको छोड देनेवाला पुरुष सदैव निर्भय रहता है, उसे न कुछ सम्हालना और न रक्षा करनी पड़ती है। यहां तक कि यह अपने शरीर तकसे निस्पृह रहता है, तब ऐसे महापुरुषको कौन पदार्थ आकुलित कर सकता है, क्योंकि यह अपने आत्माके सिवाय समस्त परभावों या यिभायोंको हेय अर्थात् त्याज्य समझता हैं। इसीसे कुछ भी ममत्य शेष नहीं रह जाता और समय समय असंख्यात व अनन्तगुणी कर्मोकी निर्जरा होती रहती है, इसीसे यह सुखी रहता है। (१०) ब्रह्मचर्यधारी महाबलवान योद्धा सदैव उक्त नय व्रतोंको धारण करता हुआ, निरंतर अपने आत्मामें ही रमण करता है यह बाह्य स्त्री आदिसे विरक्त रहता है उसकी दृष्टिमें सब जीय संसारमें एक समान प्रतीत होते हैं और स्त्री पुरुष, च नपुसंकादिका भेद कर्मकी उपाधि जानता है। यह सोचता है कि यह देह, हाड, मांस, मल, मूत्र, रुधीर, पीय आदि रागी जीयोंको सुहायनासा लगता है। यदि यह घामकी चादर हटा दी जाय अथवा वृद्धावस्था आ जाय तो फिर इसकी
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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