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________________ १८] श्री जैनव्रत-कथासराव ******************************** प्रकार ये धर्मके दश लक्षण बताये हैं। ये वास्तयमें आत्माके ही निजभाव हैं जो क्रोधादि कषायोंसे ढक रहे हैं। उत्तम क्षमा, क्रोधके उपशम या क्षय होनेसे प्रगट होती है। इसी प्रकार उत्तम मार्दव, मानके उपशम, क्षयोपशम, व सयसे होता है। उत्तम आर्जय, मायाके नाश होनेसे होता है। सत्य, मिथ्यात्य (मोह) के नाशसे होता हैं। शौच, लोभके नाशसे होता है। संयम, विषयानुराग कम या नाश होनेसे होता है। तप, इच्छाओंको रोकने (मन यश करने) से होता है। त्याग, ममत्य (राग) भाव कम चा नाश करनेसे होता है। आकिंचन्य, निस्पृहतासे उत्पन्न होता है और ग्राह्मचर्य काम विकार तथा उनके कारणोंको छोडनेसे उत्पन्न होता है। इस प्रकार ये दशों धर्म अपने प्रति घातक दोषोंके क्षय होनेसे प्रगट हो जाते हैं। (१) समायान् प्राणी कदापि किसी जीयर्स पर विरोध नहीं करता हैं और न किसीको यूरा भला कहता हैं। किन्तु दूसरोंके द्वारा अपने उपर लगाये हुये दोषोंको सुनकर अथपा आये हुवे उपद्रयोंपर भी विचलित चित्त नहीं होता है, और उन दुःख देनेवाले जीयों पर उल्टा करूणाभाव करके क्षमा देता है, तथा अपने द्वारा किये हुये अपराधोंको समा मांग लेता है। इस प्रकार यह क्षमावान् पुरुष सदा निर्बेर हुआ, अपना जीवन सुख शांतिमय बनाता है। (२) इसी प्रकार मार्दव धर्मधारी नरके समा तो होती है किन्तु जाति, कुल, ऐश्वर्य, विद्या, तप और रूपादि समस्त प्रकारके मदोंके नाश होनेसे विनयभाव प्रकट होता है, अर्थात् यह प्राणी अपनेसे बड़ोंमें भक्ति व विनयभाव रखता है और छोटेमें करूणा व नम्रता रखता है, सबसे यथायोग्य मिष्ट्रवचन
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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