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________________ श्री जैनव्रत-कथासंग्रह **** है। इसलिये भगवानने सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको मोक्षमार्ग कहा है और सच्चा सुखं मोक्ष अवस्थाहीमें मिलता है, इसलिये मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करना मुमुक्षु जीवोंका परम कर्तव्य है। १२] ****** *************** ( १ ) पुद्गलादि प्रद्रव्यंसे भिन्न निज स्वरूपका श्रद्धान ( स्वानुभव) तथा उसके कारणस्वरूप सप्त तत्त्वों और सत्यार्थ देव गुरु व शास्त्रका श्रद्धान होना सो सम्यग्दर्शन हैं। यह सम्यग्दर्शन अष्ट अंग सहित और २५ मल दोष रहित धारण करना चाहिये अर्थात् जिन भगवानके कहे हुए वचनोंमें शंका नहीं करना, संसारके विषयोंकी अभिलाषा न करना, मुनि आदि साधर्मीयोंके मलीन शरीरको देखकर ग्लानि न करना, धर्मगुरुके सत्यार्थ चोंकी यथार्थ पहिचान करना अर्थात् कुगुरु ( रागद्वेषी भेषी परिग्रही साधु गृहस्थ ) कुदेव ( रागद्वेषी भयंकर देव कुधर्म हिंसापोषक क्रियाओं) की प्रशंसा भी न करना, धर्मपर लगते हुए मिथ्या आक्षेपोंको दूर करना और अपनी बड़ाई व परनिन्दाका त्याग करना, सम्यक् श्रद्धान और चारित्रसे डिगते हुए प्राणियोंको धर्मोपदेश तथा द्रव्यादि देकर किसी प्रकार स्थिर करना और धर्म और धर्मात्माओमें निष्कपट भाव से प्रेम करना और सर्वोपरि सर्व हितकारी श्री दिगम्बर जैनाचार्यो द्वारा बताये हुए श्री पवित्र जिनधर्मका यथार्थ प्रभाव सर्वोपरि प्रकट कर देना ये ही अष्ट अंग है। इनसे विपरीत शंकादि आठ दोष, १ जाति, २. कुल, ३. बल, ४ एश्वर्य, ५ धन, ६ रूप ७. विद्या और ८. तप इन आठके आश्रित हो गर्व करना सो आठ मद, कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और कुगुरु सेवक, सुदेव आधारक तथा कुधर्म
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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