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________________ १४४] श्री नव्रत-कथासंग्रह ******************************** किंतु सेठानीने सुनी अनसुनी कर दी और कोई व्यवस्था नहीं की। सेठ स्वयं आया और शुद्धतापूर्वक बहुतसे पकवान तैयार कर सात गुणोंसे नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया। सबके निरंतराय आहारसे वह बहुत संतुष्ट हुआ। महाराजने सेठको 'अक्षयदानमस्तु' नामका आशिर्वाद दे विहार किया। इधर सेठानी श्रीमती अत्यंत क्रोधित हुई और अन्तराय कर्मका बन्ध हो गया, उसी अन्तराय कर्मसे तेरे इस भयमें संतान नहीं हैं। रानीने मुनि महाराजके महसे अपना पर्व भव सुना तो वह अपने कुकृत्य पर अत्यंत दुःखी हुई और प्रार्थना की कि है मुनिराज! अंतराय कर्म नष्ट हो इसके लिये कोई उपाय बताओ जिससे मुझे संतान-सुखकी प्राप्ती हो। मुनिने कहा-हे महादेवी! तुम अपने कर्मोका क्षय करने हेतु अक्षयतृतीया व्रत विधि पूर्वक करो। यह व्रत सर्व सुखको देनेवाला तथा अपनी इष्ट पूर्ति करनेवाला हैं। राणीने प्रश्न किया-हे मुनिवर! यह प्रत पहिले किसने किया और क्या फल पाया? इसकी कथा सुनाइये मुनिराजने कहा कि राणी! इसकी भी पूर्वकथा सुनो विशाल जम्बूद्वीपमें भरतक्षेत्रके विषे मगधदेश नामका एक देश हैं। उसी देशमें एक नदीके किनारे सहस्त्रकूट नामका चैत्यालय स्थित हैं। उस चैत्यालयकी वंदना हेतु एक धनिक नामका वैश्य अपनी सुंदरी नामा स्त्री सहित मया। वहां कुण्डल पंडित नामका एक विद्याधर अपनी स्त्री मनोरमा देवी सहित उक्त प्रत (अक्षय तीज व्रत) का विधान कर रहे थे। उस समय (पति पत्नी) धनिक सेठ व सुंदरी नामा सीने विद्याधर युगलसे पूछा कि यह आप यया कर रहे हो अर्थात् यह किस व्रतका विधान है?
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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