SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पीठिका [९ ******* ***** **** गये तथा नदी सरोवर आदि जलाशय जलपूर्ण हो गये। वनचर, नभचर व जलचर आदि जीव सानन्द अपने अपने स्थानोंमें स्वतंत्र निर्भय होकर विधरने और क्रीडा करने लगे, दूर दूर तक रोग मरी व अकाल आदिका नाम भी न रहा, इत्यादि अनेकों अतिशय होने लगे तब धनमाली उन फूल और फलोंकी डाली लेकर यह आनन्ददायक समाचार राजाके पास सुनानेके लिये गया और विनययुक्त भेट करके सब समाचार कह सुनाये। राजा श्रेणिक यह सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुआ और अपने सिंहासन से तुरंत ही उतर कर विपुलाचलकी ओर मुंह करके परोक्ष नमस्कार किया । पश्चात् बनपालको यथेच्छ पारितोषिक दिया और यह शुभ सम्वाद सब नगरमें फैला दिया। अर्थात् यह घोषणा करा दी कि महावीर भगवानका समवशरण विपुलाचल पर्यत पर आया है, इसलिये सब नरनारी वन्दनाके लिये चले और राजा स्वयं भी अपनी विभूति सहित हर्षित मन होकर बन्दना के लिये गया । जाते जाते मानस्तम्भ पर दृष्टि पड़ते ही राजा हाथीसे उतर कर पांच प्यादे चल समवशरणमें रानी आदि स्वजन पुरजनों सहित पहुंचा और सब ओर यथायोग्य वन्दना स्तुति करता हुआ गन्धकुटिके निकट उपस्थित हुआ, और भक्तिसे नम्रीभूत स्तुति करके मनुष्योंकी सभामें जाकर बैठ गया और सब लोग भी यथायोग्य स्थानोंमें बैठ गये । तब मुमुक्षु (मोक्षाभिलाषी) जीवोंके कल्याणार्थ श्री जिनेन्द्रदेवके द्वारा मेघोकी गर्जनाके समान ॐकाररूप अनक्षरी पाणी ( दिव्यध्वनि) हुई । यद्यपि इस वाणीको सब उपस्थित समाज अपनी अपनी भाषामें यथासंभव निज ज्ञानावरण कर्मके
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy