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________________ .१३२] .... १३२] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** राजन! तुम बारहसौचौतीस व्रत करो। यह व्रत भादों सुदीप से प्रारंभ होता है। १२३४ उपयास तथा एकाशन करना याहिए। यह व्रत दश वर्ष और साडेतीन माहमें पूरा होता है और एकांतर करे तो ५ वर्ष पौने दो मासमें ही पूर्ण हो जाता है। व्रतके दिन रस त्यागकर नीरस भोजन करे, आरम्भ परिग्रहका त्याग कर भक्ति और पूजामें निमग्न रहे| और 'ॐ हीं असिआउसा चारित्रशुद्धव्रतेम्यो नमः इस मंत्रका १०८ बार जाप करे। जब व्रत पूरा हो जाये, तब उद्यापन करे। झारी, थाली, कलश आदि उपकरण चैत्यालयमें भेंट कर, चौसठ ग्रंथ पधराये, थार प्रकारका दान करे तथा १२३४ लाडू आयकोंके घर बांटे, पाठशालादि स्थापन करे इत्यादि और यदि उद्यापनकी शक्ति न होवे तो दूना प्रत करे। इस प्रकार राजाने प्रतकी विधि सुनकर उसे यथा विधि पालन किया व उद्यापन भी किया। अंतमें समाधिमरण करके अय्युत स्वर्गमें देव हुआ। यहांसे चयकर वह विदेहक्षेत्रके विजयापुरीमें धनंजय राजार्क चन्द्रभानु प्रभु नामका तीर्थकर पदधारी हुआ।उसके गर्भादिक पांच कल्याणक हुए। इस प्रकार राजा हेमयर्मा स्वर्गके सुख भोगकर तीर्थकर पद प्राप्त करके इस व्रतके प्रभावसे मोक्ष गया। इसलिये हे श्रेणिक! तीर्थकर पद प्राप्त करनेके लिये यह व्रत भी एक साधन है। यह सुनकर राजा श्रेणिकने भी प्रद्धासहित इस व्रतको धारण किया और षोडशकारण भावनायें भी भायीं सो तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया। अब आगामी चौवीसीमें ये प्रथम तीर्थकर होकर मोक्ष जायेंगे। इस प्रकार और भी जो भव्य जीव इस यतका पालन करेंगे वे भी उत्तमोत्तम सुखोंको पाकर मोक्ष पद प्राप्त करेंगे। . बारहसौ चौतीस व्रत, हेमवर्म नृप पाल। नरसुरके सुख भोगकर, लहि मुक्ति गुणमाल ।
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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