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________________ १३०] ****** श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ****** ******* परंतु प्रभावती रंच मात्र भी नहीं डिगी और अंतमें समाधिमरण करके अच्युत स्वर्गमें देव हुई। वहां उसका नाम पद्मनाभ हुआ । इसी बीच मृणालपुरकी एक रुक्मणी नामकी श्राविका मरकर उस देवकी देवी हुई। सो ये दोनो सुखपूर्वक कालक्षेप करने लगे। एक दिन उस पद्मनाभ देवने विचारा, कि हमारा पूर्व जन्मका पिता मिथ्यात्वमें पड़ा है उसे संबोधन करना चाहिए। यह विचार कर उसके पास गया और अपना सब वृत्तांत कहा, सो सुनकर वह बहुत लज्जित हुआ और सब प्रपंच छोडकर शांतिचित हुआ । पश्चात् जिनोक्त तपश्चरण किया, और समाधिसे मरण कर स्वर्गमें प्रभास देव हुआ । सो वह पद्मनाभदेव स्वर्गसे चयकर तू रत्नशेखर चक्रवर्ती हुआ हैं, और पद्मनाभकी देवी तेरी मदनमंजूषा नामकी पट्टरानी हुई हैं। तथा प्रभासदेव वहांसे चयकर यह तेरा मित्र मेघवाहन विद्याधर हुआ है। सो हे राजा ! तूने पूर्व भवमें पुष्पांजलि व्रत किया था जिसके फलसे स्वर्ग से सुख भोगकर यहां चक्रवर्ती हुआ है, और ये दोनों भी तेरे पूर्वजन्मके सम्बन्धी हैं इससे इनका तुझ पर परम स्नेह हैं। यह सुनकर राजाने पुष्पांजलि व्रत धारण किया और यात्रा करके घर आया व विधि सहित व्रत किया, पश्चात् बहुत कालतक राज्य करके संसारसे विरक्त होकर निज पुत्रको राज्यभार सौपकर जिन दीक्षा ले ली और घोर तप करके केवलज्ञान प्राप्त किया तथा अनेक भव्य जीवोंको धर्मोपदेश दिया पश्चात् शेष कर्मोको नाश करके मोक्षपद प्राप्त किया। मदनमंजूषाने दीक्षा ले ली. सो तपकर सोलहवें स्वर्गमें देव हुई। मेघवाहन आदि अन्य राजा भी यथायोग्य गतियोंको प्राप्त हुए। इस प्रकार और भी भव्य जीव
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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