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________________ १२८] श्री जैनवत-कथासंग्रह ******************************** इसके प्रभावती नामकी एक पुत्री थी जिसने जैन गुरुके पास शिक्षा पाई थी। एक दिन ब्राह्मण सपत्नी वनक्रीडाको गया था, तो यहां पर उसकी स्त्रीको सापने काटा ओर वह मर गई। तब ब्राह्मण अत्यंत शोकसे विह्वल हो गया, उदास रहने लगा। यह समाचार पाकर उसकी पुत्री प्रभावती वहां आई और अनेक प्रकारसे पिताको संबोधन करके बोली-पिताजी! संसारका स्वरूप ऐसा ही है। इसमें इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग प्राय: हुआ ही करते हैं। यह इष्टानिष्ट कल्पना मोह भायोंसे होती है। यथार्थमें न कुछ इट हैं, न अनिष्ट हैं, इसलिये शोकका त्याग करो। पश्चात् प्रभावतीने अपने पिताको जैन गुरुके पास संबोधन कराकर दीक्षा दिला दी। सो ब्राह्मणने प्रारंभमें तपश्चरण किया, परंतु चारित्र भ्रष्ट होकर मंत्र यंत्र तंत्रादिके (व्यर्थ झगडों) में फंस गया, विद्याके योगसे नई बस्ती बसाकर उसमें घर मांडकर रहने लगा और विषयासक्त हो स्वच्छन्द प्रवर्तने लगा। तब पुनः प्रभावती उसे संबोधन करनेके लिये यहां गई और कहा-पिताजी! जिन दीक्षा लेकर इस प्रकारका प्रवर्तन अच्छा नहीं है। इससे इस लोकमें निंदा और परलोकमें दुःख सहना पड़ेंगे। यह सुनकर ब्राह्मण कुपित हुआ और उसे पनमें अकेली छोड़ दी। सो जहां प्रभावती णमोकार मंत्र जपती हुई यनमें बैठी थी, यहां पनदेयी आई और पूछा बेटी, तू क्या चाहती है? तब प्रभावतीने फैलाशयात्रा करनेकी इच्छा प्रगट की।
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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