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________________ १२० ] *** श्री जैनव्रत-कथासंग्रह *********** ***** पश्चात् पडिमाके दिन पूजनादि क्रियासे अनन्तर घर आकर चार प्रकार संघोंको चार प्रकारका दान करके आप पारणा करे। जो कोई इस व्रतको तीन वर्ष तक करता है उसे स्वर्गसुख मिलता है। पीछे कितने भक्ष नियोजता है और जो पांच वर्ष तक करता है वह उत्तमोत्तम सुख भोगकर सातवें भय मोक्ष जाता है, तथा जो सात वर्ष एवं आठ वर्ष तक व्रत करता है यह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी योग्यतापूर्वक उसी भवसे मोक्ष जाता है। इस व्रतको अनन्तवीर्य और अपराजितने किया, सो ये दोनों चक्रवर्ती हुए। और विजयकुमार इस व्रतके प्रभावसे चक्रवर्तीका सेनापति हुआ। जरासिंधुने पूर्वजन्ममें यह व्रत किया, जिससे यह प्रतिनारायण हुआ। जयकुमार सुलोचनाने यह व्रत किया जिसे वह अवधिज्ञानी होकर ऋषभनाथ भगवान ७२ या गणधर हुआ और उसी भवसे मोक्ष गये। सुलोचना भी आर्यिकाके व्रत धारणकर स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्गमें महर्द्धिक देव हुई। श्रीपालका भी इससे कोढ़ गया और उसी भवसे मोक्ष भी हुआ। अधिक कहां तक कहा जाय ? इस व्रतकी महिमा कोटि जीभसे भी नहीं की जा सकती है। इस प्रकार तीन, पांघ व सात (आठ) वर्ष इस व्रतको करके उद्यापन करे, आवश्यकता हो तो नवीन जिनालय बनावे, सब संघोंको तथा विद्यार्थिजनोंको मिष्टान्न भोजन करावे, चौबीस तीर्थंकरोंकी प्रतिमा पधरावे, शांति हवन आदि शुभ कार्य करे, प्रतिष्ठा करावे, पाठशाला बनाये, ग्रंथोंका जीर्णोद्धार करे और प्रत्येक प्रकारके उपकरण आठ आठ मंदिरमें भेंट करे, इस प्रकार उत्साहसे उद्यापन करे। यदि उद्यापनकी शक्ति न हो तो व्रत दूना करे इत्यादि ।
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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