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________________ श्री द्वादशी व्रत कथा ********** [ १०९ ****** अंग दिखलाता फिरता है, यह लज्जां रहित हुआ कभी वन और कभी बस्तीमें भटकता फिरता है, और लंघने करके अपनेको महात्मा बताता है, इत्यादि । निंदा करते हुए मुनिराज पर मिट्टी, धूल आदि डाली मस्तक पर थुका, तथा और भी बहुत उपसर्ग किये। सो मुनि तो उपसर्ग जीतकर शुक्लध्यानके योगसे केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षको प्राप्त हुए और यह कन्या मरकर पहिले नर्क में गई, जहां बहुत दुःख भोगे । *** वहांसे निकलकर गधी हुई, सुकरी हुई, फिर हथनी हुई, फिर बिल्ली हुई, फिर नागनी हुई, फिर चांडालके घर कन्या हुई और वहांसे आकर अब यह तुम्हारे घर पुत्री हुई हैं। इस पुत्रीके भवांतरकी कथा सुनकर राजाने कहा- प्रभु ! इस पापके निवारण करनेके लिए कोई धर्मका अवलम्बन बताईये, तब श्री गुरुने कहा कि यदि यह द्वादशीका व्रत करे, तो पापका नाश होकर परम सुखको प्राप्त हो । इस व्रतकी विधि इस प्रकार है कि भादों सुदी १२ के दिन उपवास करे और संपूर्ण दिन धर्मध्यानमें बिताये, तीनों काल सामायिक करे, जिन मंदिरमें जाकर वेदीके सन्मुख पंच रंगो में तंदुल रंगकर साथिया काढे, तथा मंडल बनावे उसपर सिंहासन रख चतुर्मुखी जिनबिंब पधरावे, फिर पंचामृताभिषेक करे, अष्टद्रव्यसे पूजन करे ! भजन और जागरण कर स्वच्छ और सुगंधी पुष्पोंसे जाप देवे। फिर जलसे परिपूर्ण कलश लेकर उस पर नारियल रक्खे तथा नवीन कपडेसे ढांककर एक रकाबीमें अर्ध्य सहित लेकर तीन प्रदक्षिणा देये, धूप खेये और कथा सुने । इस प्रकार श्रद्धायुक्त बारह वर्ष तक यह व्रत पाले। फिर उद्यापन करे। अर्थात् नवीन चार प्रतिमा पधरावे अथवा चार
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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