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________________ श्री मौन एकादशी व्रत कथा [१०१ ******************************** जन्मसे अनाथिनी अन्न यस्त्र तकका कर पा रही हूँ, इसलिये कृपाकर ऐसा कोई उपाय बताइये कि जिससे मेरा दुःख दूर होये। तब श्री गुरुने कहा है पुत्री! यह सब तेरे पूर्वजन्मके पापका फल हैं। अब त सी जिनोमोन निथ गुरु दयामयी धर्मपर श्रद्धा करके भाव सहित मौन एकादशी व्रतको पालन कर जिससे तेरे पापका क्षय होये और संसारका अन्त आये। सुन, इस व्रतकी विधि इस प्रकार है पौष यदी एकादशीको सोलह प्रहरका उपवास कर और ये सोलह प्रहर जिनालयमें धर्मकथा पूजाभिषेकादि धर्मध्यानमें व्यतीत कर, तीनों काल सामायिक कर, सोलह प्रहर मौनसे रह, अर्थात् मुंहसे न बोलें। हाथ, नाक, आंख आदिसे संकेत भी न करें। इस प्रकार जब सोलह प्रहर हो जावं तब द्वादशीके दोपहरको पूजाभिषेक करके सामायिक या स्वाध्याय करे और फिर अतिथि (मुनि, गृहस्यागी) श्रावक तथा साधर्मी गृहस्थ व दीन दुखित भूखितको भोजन कराकर आप पारणा करे। जो कोई व्रती पुरुष हों उनको नारियल या खारक, बादाम आदि बांटे। इस प्रकार ग्यारह वर्ष तक यह व्रत करके फिर उद्यापन करे। और उद्यापनकी शक्ति न होवे तो दूना व्रत करे। उद्यापन विधि इस प्रकार है कि आवश्यकता होये तो श्री जिनमंदिर बनवाये। २४ महाराजकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करके पधरावे। घण्टा, झालर, चौकी, चन्दोया, छत्र, चमर, शास्त्रादि २४-२४ जिनालयमें पधरावे । शास्त्रभंडारकी स्थापना करें, ग्रंथ वितीर्ण करे, विद्यार्थीयोंको भोजन करावे, यथाशक्ति आवश्यक संघको जिमाये। नारियल आदि साधर्मियोंको यांटे, महापूजा विधान करे, दुःखी अपाहिजोंको भोजन, वस्त्र औषधि आदि दान करे। भयभीत
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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