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________________ ९८] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** उद्यापनकी विधि--हा ग्रत पूर्ण हो जायेगास संघको . भोजन कराये, और संघमें चार प्रकारका दान करें। शास्त्रोंका प्रचार करें, पूजनके उपकरण व शास्त्र भी जिनालयमें पधरायें इत्यादि। इस प्रकार प्रतकी विधि और फल सुनकर उन तीनों कन्याओंने राजाकी सहायतासे प्रत पालन किया। और समाधिमरण कर पांचवें स्वर्गमें देव हुई। राजा महीचंद्र भी दीक्षा धर तप करके स्वर्ग गया। विशालनयना नाम रानीका जीय जो देय हुआ था, सो मगधदेशके वाडवनगरमें काश्यप गौत्रीय सांडिल्य नाम ब्राह्मणकी सांडिल्या स्त्रीके गौतम नामका पुत्र हुआ था तथा चमरी व रंगीके जीव भी देव पर्यायसे चयकर मनुष्य हो तप कर उत्तम गतिको प्राप्त हुए। जय श्री महावीर भगवानको केवलज्ञान हुआ परंतु पाणी नहीं खीरी इसका कारण इन्द्रने जाना कि गणधर बिना वाणी नहीं खिरती है, सो इन्द्र गौतम ब्राह्मणके पास 'त्रैकाल्यं द्रव्य षटकं' इत्यादि नवीन श्लोक बनाकर साधारण भेषमें गया और उसका अर्थ पूछा जब गौतम उसका अर्थ लगानेमें गडबडाया तब इन्द्र उसे भगवानके समवशरणमें ले आया, सो मानस्तम्भ देखते ही गौतमका मान भंग हो गया और उन्होंने प्रभुके सम्मुख जाकर नमस्कार करके दीक्षा ली। सो जिनकथित चारित्रके प्रभावसे उसे चारों ज्ञान हो गया और वह भगवानके गणधरों में प्रथम गणधर हुए, कितनेक काल जीवोंको संबोधन किया और महावीर प्रभुके पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त करके निर्वाणपदकी प्राप्ति हुआ। उन गौतमस्वामीको हमारा नमस्कार हो। लब्धि विधान व्रत फल थकी, विशालनयना मार। गणधर हो लह मोक्षपद, किये कर्म सब क्षार ।।
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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