SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ******** Aview ******** * पाकर उत्पन्न हुए अज्ञान नामक औदायिक भाव के सद्भाव से अनादिकाल * से आजतक यह जीव पर पदार्थों के प्रति भ्रान्ति रूप कल्पनाओ को संजोता रहा है। वह अपने आपको परद्रों का स्वामी, कतई का भोक * मानता है। * यथा . * १. मैं दृष्यमान और अदृष्यमा सम्पूर्ण परपदार्थों का स्वामी हूँ। २. मैं दृष्यमान और अदृष्यमान सम्पूर्ण परपदार्थों का कर्ता हूँ। ३. मैं दृष्यमान और अदृष्यमान सम्पूर्ण परपदार्थों का भोक्ता हूँ। *४. मैं परद्रव्य का तथा परद्रव्य मेरा भला अथवा बुरा कर सकता है। * *५. पाँच प्रकार के शरीर मेरे हैं। शरीर से भिन्न मेरा कोई अस्तित्व ही* * नहीं है। - वस्तुतः ये सब मान्यताएँ विपरीत होने से आत्मघाती है। प्रत्येक द्रव्य की अपनी अपनी स्वतंत्र सत्ता है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता। नहीं हो सकता। होगा भी कैसे ? प्रत्येक द्रव्य अपनी उपादानशक्ति से * परिणमन करता है। यदि कोई अन्य द्रव्य उसका परिणमन करायेगा, तो* * उपादान अन्य द्रव्य बन जायेगा। परिणमनकारी द्रव्य में उपादानशक्ति न * * होने से उसका वस्तुत्व गुण नष्ट हो जायेगा। वस्तुत्व गुण के नष्ट हो जाने से अस्तित्वगुण नष्ट हो जायेगा। इसतरह द्रव्य का नाश हो जायेगा। ऐसा होने पर विश्व के नाश का प्रसंग आयेगा। इस अनर्थ से * बचने के लिए किसी द्रव्य का भला या बुरा कोई द्रव्य नहीं कर सकता * * ऐसा मानना चाहिये। प्रत्येक द्रव्य अपने ही अनन्त गुण और पर्यायों के *कर्ता होते हैं। * शंका : यदि ऐसा मान लिया जाये तो धर्मद्रव्य का गति, अधर्मद्रव्य का स्थिति, आकाशद्रव्य का अवकाशदान, कालद्रव्य का परिणमनकरण * और पुद्गल द्रव्य का सुख - दुःख, जीवन-मरण, शरीर-वचन, मन और * * श्वासोच्छ्वास आदि जीव के प्रति उपकार होते हैं, इस अर्थ को प्रदर्शित * * करने वाले प्राचीन आचार्यों के मत असत्य की कोटि में आ जायेंगे। * * समाधान : ऐसा नहीं मानना चाहिये। आचार्य तीर्थंकर वाणी के प्रसारक, अनेकान्त के प्रेमी तथा पापभीरु होते हैं। कहीं जिनवाणी की प्ररूपणा ।। में स्खलन न हो जाये, इसके लिए वे सतत सजग रहते हैं। अतः उनके ********** **********
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy