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________________ ******* बालांकुशम् ******* जैसे सूर्य का प्रकाश मनुष्यों के मन को चमत्कृत कर देता है. उसीप्रकार ज्ञान का प्रकाश मनुष्य के मन में चमत्कार उत्पन्न करता है। जिसप्रकार सूर्य जिस नभोमण्डल में प्रकाशित होता है, उस नोम केय का विकास करता है, उसीप्रकार ज्ञानरूपी सूर्य • जिस आत्मा में उदित होता है, उस आत्मा की ख्याति को वह लोकविश्रुत कर देता है। जैसे सूर्य की स्तुति समस्त जगज्जन करते हैं, उसीप्रकार समस्त आत्मार्थी ज्ञानरूपी सूर्य की स्तुति उपासनादि करते हैं। जैसे नानाविध नक्षत्रों में सूर्य प्रधान है, उसीप्रकार समस्त आत्मगुणों में ज्ञान प्रधान गुण है। यदि सूर्य और ज्ञान में तुलना की जाये तो ज्ञान ही श्रेष्ठ सिद्ध होता है क्योंकि उस सूर्य को राहु ग्रस लेता है, बादल आच्छादित करता है तथा सायंकाल में सूर्य अस्त हो जाता है जब कि ज्ञानरूपी सूर्य एकबार उदित हो जाने पर उसे विभावों का राहु और कर्मों के बादल आच्छादित नहीं कर पाते। ज्ञानरूपी सूर्य का कभी अस्त नहीं होता। ज्ञान आत्मा की अपूर्व शक्ति है। इसके व्दारा ही आत्मा अपने हित का अन्वेषण कर सकता है। ज्ञान के बिना साधना अपंग है । साधना की उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि ज्ञान के बिना संभव नहीं है । आचार्य भगवन्त श्री कुन्दकुन्द्र के अनुसार तो प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना और ध्यान आदि समस्त चारित्रिक कार्य ज्ञान ही है। आत्मज्ञान के अभाव में किया गया सम्पूर्ण क्रियानुष्ठान व्यर्थ है । जिन जीवों के पास आत्मज्ञान नहीं है उन्हें हिताहित का विवेक नहीं होता, वे अपनी कषायों का उपशमन नहीं कर पाते, उनकी विषयाभिलाषा शमन को प्राप्त नहीं होती, उनके मन में दिव्य विचारों का जन्म ही नहीं होता। उनके जीवन में सदा अन्धःकार ही रहता है। इसलिए उनके जीवन में कभी प्रभात नहीं होता। ▾ योगीजन निरन्तर ज्ञान में स्थित रहते हैं। ज्ञान ही उनका भोजन है और ज्ञान ही उनका भजन है। ज्ञान के अतिरिक्त वे कुछ चाहते भी नहीं है। ज्ञान ही उनकी साधना का साधन और ज्ञान ही उनका साध्य होता है। अतः उनके जीवन में सदैव प्रभात है । ************* ८५
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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