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________________ ******** कुशाग् ******** * पहले था। उसमें कोई प्रगति घटित नहीं होती। इसतरह के अपायों से . भव्यों की एक व.रने हेतु मध्यानविधि को प्रकट किया आ रहा है। SO ग्रंथकार कहते हैं कि आत्मतत्त्व जाप्य से, होम से अथवा * अक्षसूत्र की धारणा से प्राप्त नहीं होता। * शंका : पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थम इस कारिका में ग्रंथकार ने स्वयं जाप * का उपदेश दिया ह, यहाँ वे उसका खण्डन कर रहे हैं। क्या यह * वचनविघात नहीं है ? * समाधान : उपदेश प्रासंगिक होते हैं। उपदेश सुनने वाले पात्रों में भेद *होने के कारण उपदेश पद्धति में अन्तर आता है। उपदेश पद्धति में पाये * जाने वाले अन्तर को वचनविघात नहीं कहते हैं। सर्वज्ञप्रणीत ग्रंथों में * जाप्यानुष्ठान का जो प्रकरण आया है उसके दो प्रयोजन है . * १. पूज्य पुरुषों का भक्तिपूर्वक स्मरण करना, तथा २. मन को एकाग्र करना। अनेक गुणों के पुंज ऐसे पंचपरमेछी आत्मा के विशोधक होने से हमारे आराध्य हैं। हमें संसार परिभ्रमण को तज कर आत्मस्थ होना है। इस पथ पर निर्विघ्नतया बढ़ने के लिए हमारे समक्ष परमेष्ठी आदर्श * * के रूप में हैं. अतएव उनका स्मरण किया जाता है। मन अत्यन्त चंचल है। अनेक विषयों में मंडराने वाले मन को * उन विषयों से विमुख करके आत्मतत्त्व का (अध्यात्म पथ का) पथिक * बनाने के लिए जाप्य सहयोगी बनते हैं। इसलिए ध्याता जाप करता है। * मन की एकाग्रता के निमित्त को हो ध्यान का स्वरूप मानना, मार्ग को * ही मंजिल मान लेने के समान मूढत्व का ग्रंथकार ने निषेध किया हैं। * देवयज्ञ को होम कहते हैं अर्थात् अज्ञकुण्ड में मन्त्रपूर्वक जोर समिधा की आहूति दी जाती हैं उसे होम कहते हैं। उस होम के द्वारा भी आत्मतत्व प्राप्त नहीं होता। अक्ष रूद्राक्ष को कहते हैं। अतः अक्षसत्र * का अर्थ रूद्राक्षादिक की माला। अन्य मतावलम्बी जीव तुलसी, रूद्राक्ष.* * चंन आदि की मालाओं को पहनकर ऐसा मानते हैं कि सम्पूर्ण पाप * स्वयमेव माला के प्रभाव से नष्ट हो जायेंगे व आत्मा शुद्ध हो जायेगा। ग्रंथकार कहते हैं कि अक्षसूत्र के धारण करने से भी आत्मतत्त्व की * उपलब्धि नहीं हो सकती। ********** ८३********** 杂杂杂杂杂杂杂治非法杂杂杂杂杂杂杂杂坛杂杂杂杂杂路路路路路张珍珍珍
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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