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________________ ******** ज्ञानांकुशम् ******* धीरे बाहर निकालता है, उसको पवनाभ्यास का वर्णन करने वाले शास्त्रों में विद्वानों ने रेचक ऐसा कहा है। जैनधर्म शास्त्रानुसार प्राणायामरूप यह वायुनियन्त्रण बहुत आवश्यक तत्त्व नहीं है। संयमी को वांछापूर्वक प्राणायाम करने की आवश्यकता नहीं है। प्राणायाम तो उसे स्वयमेव उपलब्ध हो जाता है। ज्ञानार्णव में तो स्पष्ट ही प्राणायाम को आर्त्तध्यान का कारण माना है। आचार्य श्री शुभचन्द्र लिखते हैं प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यादार्त्तसंभवः । तेन प्रच्यावते नूनं ज्ञाततत्वोऽपि लक्ष्यतः ।। (ज्ञानार्णव २७/९) : अर्थात् प्राणायाम में प्राणों का आयमन अर्थात् रोकने से पीड़ा होती है। उस पीड़ा से आर्त्तध्यान होता है और उस आर्त्तध्यान से तत्त्वज्ञानी मुनि भी अपने लक्ष्य से च्युत हो जाते हैं। यही कारण है कि जैनागम में प्राणायाम जैसी बाह्यक्रियाओं पर (अधिक जोर नहीं दिया गया है। शंका - जैनागम में प्राणायाम को आर्तध्यान का कारण माना है. यह बात पहले लिखे हुए प्रमाण से स्पष्ट हो जाती है। फिर इस ग्रंथ में रेचकादि प्राणायामों का उपदेश क्यों दिया गया है ? समाधान- प्राथमिक शिष्य को ध्यान की सिद्धि के लिए और मन को एकाग्र करने के लिए प्राणायाम आलम्बनस्वरूप है। आचार्य श्री शुभचन्द्र जी ने लिखा है - स्थिरीभवन्ति चेतांसि प्राणायामावलम्बिनाम् । जगद् वृत्तं च निःशेषं प्रत्यक्षमिव जायते । । ( ज्ञानार्णव २९ / १४ ) अर्थात् प्राणायाम करने वालों के मन इतने स्थिर हो जाते हैं कि उनको जग का वृत्तान्त प्रत्यक्ष दिखने लगता है। मन को एकाग्र करने के लिए ही इस ग्रंथ में प्राणायाम का उपदेश दिया गया है। जब प्राणायाम पर विशेष बल दिया जायेगा तो वह आर्त्तध्यान का कारण बनेगा, अन्यथा नहीं । ********* ८१ -
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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