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________________ ******** शालांकुशाम् ******** योगियों का तत्त्व पक्षपातविनिर्मुक्त, लाभालाभविवर्जितम् । माया मनः परित्यक्त्वं, तत्त्वं भवति योगिनः ॥२८॥ * अन्वयार्थ : *(पक्षपात) पक्षपात से (विनिर्मुक्तम्) रहित (लाभालाभ) लाभ और अलाभ से (विवर्जितम्) रहित है। (मनः) मन को (माया) माया (परित्यक्त्वम्) विरहित किया है ऐसा (योगिनः) योगियों का (तत्त्वम्) तत्त्व (भवति) * होता है। अर्थ : योगी का तत्त्व पक्षपात से, लाभ और अलाभ के विकल्प से तथा मायाचार से रहित होता है। भावार्थ : योगी की परिभाषा करते हुए मुनि पदमसिंह जी ने लिखा है कन्दर्पदर्पदलनो दम्भविहीनो विमुक्तव्यापारः। * उग्रतपो दीप्तगात्रः योगी विज्ञेय परमार्थः।। (ज्ञानसार . ४) *अर्थात् : जिसने कन्दर्प के दर्प का दलन किया है, जो दम्भ विहीन है, * जो मन, वचन, कायकृत व्यापार से मुक्त है, जो उग्रतपस्वी है, जो * * दीप्तगात्री है वह परमार्थ से योगी है ऐसा तुम जानो। योगियों में अनेक गुण होते हैं। ग्रंथकर्ता ने इस कारिका मे तीन गुणों का उल्लेख किया है। यथा*१. पक्षपातविनिर्मुक : पक्षपात का अर्थ होता है किसी एक की * तरफदारी करना, किसी वस्तु के लिए मन में अत्यन्त प्रेम होना, किसी * एक पक्ष से लगाव होना। योगी किसी से राग अथवा द्वेष नहीं करते। * अतः वे पक्षपातविमुक्त कहलाते हैं। योगी सत्यार्थी होते हैं। सत्य ही उनका पक्ष होता है। अनेकान्त के उपासक होने के कारण वे एकान्तम्राही नहीं होते हैं। सत्य को प्राप्त करने के लिए वे समस्त पक्षों का त्याग * करते हैं, क्योंकि पक्षपात अन्धत्व का निर्माता होता है यह तथ्य उन्हें * **********७७ **********
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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