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________________ ******** ज्ञानin ******** * परभावों का परिहार करने में समर्थ हो जाता है इसलिए ध्यान ही सर्वस्व* गौतम गणधर स्वामी स्वयं को सम्बोधित करते हुए कहते है .. जो सारो सव्यसारेसु, सो सारो एस गोयम। सारं झाणं ति. णामेण, सव्वं बुध्देहिं देसिद।। (बृहत् प्रतिक्रमण) अर्थात् : जो सम्पूर्ण सारों में सार स्वरूप है , हे गौतम! वह सार ध्यान * नाम से है; ऐसा सभी बुद्धिमानों ने कहा है। ध्यान क्या है ? ध्यान अपने आप में उतरने का अभियान है। देह क्या है ? देह के पार क्या है ? इसतरह का भेदविज्ञान ध्यान के द्वारा ही होता है। अन्तस्तत्त्व का स्वरूप क्या है ? उसकी * उपलब्धि कैसे हो सकती है ? इन शंकाओं का समाधान ध्यान है। निज* * का अन्वेषण करने के लिए की जाने वाली यात्रा का शुभारंभ ध्यान है।* * आत्मानुभव के आनन्द को उपलब्ध करने के लिए, परमात्मा की पुलक * * को जीवित करने के लिए अपनी गहराई नापना ध्यान है। अध्यात्म के बीज अंकुरित करने के लिए ध्यान ही उत्तम उर्वरा भूमि है। ध्यान मन को सतत जागरुक रखता है। अतः ध्यान से ज्ञान * की अभिवृद्धि होती है। ध्यान से परख की दृष्टि विकसित होती है। * ध्यान आत्मबल की वृद्धि करने वाली महा औषधि है। ध्यान एक ऐसा * दीपक है कि जो अन्तर के आलोक को प्रकाशित करता है। ध्यान एक ऐसा कल्पवृक्ष है, जिसके नीचे बैठकर आत्मा, आत्मानन्द के इच्छित महाफल को प्राप्त करता है। ध्यान जीवन से अभिमुख होकर जीने का मार्ग है। ध्यान से ही आत्मा का दर्शन होता है। ध्यान साधक की * प्राणशक्ति को उर्ध्वगामी बनाता है। ध्यान मन को प्रतिक्रिया रहित * बनाकर सत्य में जीने की कला सिरदाता है। ध्यान मन को वर्तमान में जीना सिखाता है, वर्तमान अतीत एवं भविष्य की विरोधाभासी तलहटियों का शिखर है परन्तु मन वर्तमान में ठहर नहीं पाता। वह या तो भूतकाल की स्मृतियो को संजोता है अथवा भविष्यकाल की कल्पनाओं के ताने-बाने बुनता रहता है। इन दोनों **********७५ ********** *****
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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