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ज्ञानांकुशम्
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नहीं पाया जाता। जाना कभी भी ज्ञान गुण से चक्षित नहीं रहता।
आगम में आत्मा के स्वरूप की जितनी भी चर्चा की जाती है, उसका मूल (केन्द्रस्थान) ज्ञान ही होता है। ज्ञान के आधार पर ही शेष गुणों की चर्चा की जाती है। आत्मा क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? उसकी उपलब्धि के उपाय कौन से हैं? आदि अनेक शंकाओं का समाधान ज्ञान के द्वारा ही संभव है। आत्मा यद्यपि अनन्त गुणों का सागर 'है, तथापि उन समस्त गुणों का परिचय बिना ज्ञान के संभव नहीं है। ज्ञान ही आत्मसाधनारूप चारित्र का प्राण है। हेयोपादेय का ज्ञान होने पर ही आत्मा अहितकर वस्तुओं का त्याग व हितकारी * वस्तुओं को ग्रहण कर चारित्र का अनुपालन कर सकता है। तप का महल ज्ञान के आधार पर ही खड़ा रहता है। जीवन के सम्यक विकास में ज्ञान ही प्रमुख कारण है।
आगमग्रंथों में ज्ञान के समीचीन और मिथ्या यह दो भेद किये हैं। संशय, विमोह, विभ्रम से सहित ज्ञान मिथ्या तथा उससे विपरीत ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान के महत्त्व को बताते हुए पण्डित दौलतराम * जी लिखते हैं
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जे पूरब शिव गये जांहि अब आगे जै हैं। सो सब महिमा ज्ञानतनी मुनिनाथ कहैं हैं । । विषय चाह दक्ष दाह जगत जन अरनि दझावे । तासु उपाय न आन ज्ञान धनघान बुझावे ।।
(छहकाला ४/५ ) अर्थात् : जो जीव आजतक भूतकाल में मोक्ष गये हैं, भविष्यकाल में मोक्ष जायेंगें और वर्तमानकाल में मोक्ष जा रहे हैं वे सब सम्यग्ज्ञान के प्रभाव से ही मोक्ष को प्राप्त हो रहे हैं।
विषयों की इच्छारूपी दावानल में सारा संसार जल रहा है। उस दावानल को बुझाने का एकमात्र उपाय सम्यग्ज्ञान ही है।
सम्यग्ज्ञान का महत्त्व अपरंपार है। जिस मिथ्याज्ञानरूपी महान अन्धकार को ज्योतिपुंज चन्द्रमा और सूर्य भी नष्ट नहीं कर सकते, ऐसे दुर्भेद्य मिथ्यान्धकार को सम्यग्ज्ञान क्षणार्द्ध में ही नष्ट कर देता है।
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