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________________ बानाकुशम् चैत्यभक्ति देहं चैत्यालयं प्राहुर्देही चैत्यं तथोच्यते । तद्भक्तिश्चैत्यभक्तिश्च प्रशस्या भववर्जिता ॥ २२ ॥ अन्वयार्थ : (देहम्) देह को (चैत्यालयम् ) चैत्यालय (प्राहुः) कहा है (तथा) तथा ' (देही) देही को (चैत्यम्) चैत्य (उच्यते) कहते हैं (च) और (तद्भक्तिः } उसकी भक्ति (चैत्यभक्तिः) चैत्यभक्ति है। वह (प्रशस्या) प्रशस्त है और (भववर्जिता) भवहीन करती है। अर्थ : देह चैत्यालय है और देही चैत्य है। उसकी भक्ति ही चैत्यभक्ति कहलाती है। वह भक्ति प्रशस्त है तथा भव से पार कराने वाली है। भावार्थ : चैत्य जिनेन्द्र की प्रतिमा को कहते हैं। चैत्यस्य आलयः चैत्यालयः चैत्य की जहाँ स्थापना की जाती है, वह चैत्यालय कहा जाता है। जिनमन्दिर चैत्यालय है। व्यवहारनय की विवक्षा से जिनेन्द्रबिम्ब तथा उनके आलयो को वंदना करना, स्तुति करना तथा भक्ति करना चैत्यभक्ति है। से निश्चयनय परद्रव्यनिरपेक्ष होता है। वह स्व गुण और पर्यायों अनुस्यूत एक अखण्ड द्रव्य का ग्राहक होता है। उस नय की विवक्षा से आत्मा ही चैत्य है। वह आत्मा वर्तमान में इस शरीर में विराजमान है, अतः शरीर ही चैत्यालय है। आत्मचैत्य की निश्चल प्रतीति, संवेदना एवं अनुभूतिरूप अभेदरत्नत्रय ही निश्चय से चैत्यभक्ति है। निश्चयभक्ति का स्वरूप विवेचित करते हुए आचार्य श्री पद्मप्रभ मलधारी देव लिखते हैं - निजपरमात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानावबोधाचरणात्मकेषु शुद्धरत्रय परिणामेषु भजनं भक्तिराराधनेत्यर्थः । ( नियमसार) ६१
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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