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________________ ******** ज्ञानांकुशम् देव ने आत्मा को ज्ञान मात्र कहा है। (ए बे- लगाम के घोडे ! सावधान - ७२-७३) ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल के भेद से पाँच प्रकार का है। शंका : आगमग्रंथों में ज्ञान के पाँच नहीं, आठ भेद माने हैं। णाणं अट्ठवियप्पं मादसुदिओही अणाणणाणाणि । मणपज्जयकेवलमवि मन्तकखपरोसना। ( द्रव्यसंग्रह - ५ ) अर्थात् कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, पति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ऐसे आठ प्रकार के ज्ञान हैं। उनके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद भी हैं। * ** फिर यहाँ पाँच ही भेद क्यों किये गये ? समाधान: जहाँ सामान्यज्ञान की चर्चा चलेगी, वहाँ ज्ञान के आठ भेद मानने पड़ेंगे, क्योंकि मिथ्याज्ञान भी ज्ञानरूप ही हैं। परन्तु जहाँ मोक्षमार्ग की चर्चा होगी, वहाँ पाँच भेद ही स्वीकार करने होंगे, क्योंकि मिथ्याज्ञान में मोक्षमार्गत्व का अभाव है। यहाँ मोक्षमार्ग का प्रकरण होने से समीचीन पाँच ज्ञानों का ही उल्लेख किया गया है। १- मतिज्ञान: जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। सामान्यतया इसके चार भेद हैं। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । विशेषरूप से इसके तीन सौ छत्तीस भेद हैं। यथा अवग्रह दो तरह का है, अर्थ और व्यंजन | अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये, पाँच इन्द्रिय और मन इन छह के द्वारा बारह पदार्थों को ( एक, एकविध, बहु, बहुविध क्षिप्र, अक्षित्र, निःसृत, अनिःसृत, ध्रुव, अध्रुव, उक्त और अनुक्त इन बारह पदार्थों को) मतिज्ञान जानता है। अतः चारों के (१२, ६ = ७२) बहत्तर, बहत्तर भेद हुए | व्यंजनावग्रह चक्षु और मन को छोड़कर चार इन्द्रियों के द्वारा बारह पदार्थों को जानता है। उसके अड़तालीस (१२४ ४८) भेद हुए । कुल मिलाकर तीन सौ ७२७२७२ ४८ ३३६ ) भेद हुए । छत्तीस (७२ + 1 = ***49*** ५९
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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