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________________ ******** i शा ******** । अथवा, जो शुभाशुभ मन, वचन और काय के व्यापार के द्वारा * तीव्र-मन्द आदि रूप से यथासंभव वर्तन करता है वह आत्मा है। अथवा, जो उत्पाद, व्यय और धौव्य इन तीनों धर्मों के द्वारा पूर्णरूपेण वर्तन करता है वह आत्मा है। अत् धातु में मानिन् प्रत्यय लगाने पर आत्मन् शब्द बनता है।* * सुबन्त प्रत्ययों में जब आत्मन के साथ सु-प्रत्यय जोड़ा जाता है, तब * आत्मा शब्द का निर्माण होता है। ग्रंथकार ने इस कारिका में आत्मा के विषय में विशुद्ध चिन्तन करने का उपदेश दिया है। आत्मा सत्यं परिझाटा आल्या सन्दा है. पोसा लामा * अध्यात्मशास्त्रों का केन्द्रबिन्दु आत्मा है। वह आत्मा यद्यपि त्रिकाल शुद्ध* * है तथापि परद्रव्यों के संसर्ग के कारण वह अशुद्ध हो रही है। संसार * * अवस्था उसकी अशुद्ध अवस्था है। ये पर्यायें जीव और पुद्गल के संयोग * से निर्मित हुआ करती हैं। अज्ञानी जीव स्व-पर भेदविज्ञान के अभाव में * यह जान नहीं पाता कि इस संयोगी पर्याय में आत्मतत्त्व क्या है ? और * पुद्गल द्रव्य क्या है ? यही कारण है कि अज्ञानी पर्यायों को शाश्वत * * और सत्य मानकर उसमें प्रीति करने लगता है। उसका यह प्रयत्न सतत * * होता है कि चाहे जो कुछ कर गुजरना पड़े, परन्तु पर्याय को कष्ट नहीं होना चाहिये। ग्रंथकार कहते हैं कि संयोगी पर्यायों को अपनी मानना मिथ्या मान्यता है। अतः आत्मा के सत्यस्वरूप को जान लेना चाहिये। * आत्मा में स्वभाव से ही वैभाविक शक्ति विद्यमान है। उस शक्ति * के कारण ही आत्मा विभावरूप से परिणमन करता है। कुछ लोग ऐसा * * मानते हैं कि आत्मा तो सर्वथा शुद्ध है किन्तु पर्याये अशुद्ध हैं। उनका ऐसा मानना युक्ति और आगम से.विपरीत है। आत्मा एक द्रव्य है। द्रव्य नियमतः गुण और पर्यायों से युक्त होते हैं। गुण और पर्याय के समूह के * अतिरिक्त आत्मा कुछ भी नहीं है। द्रव्य और पर्यायो का आधार-आधेय * * सम्बन्ध है। जब पर्याय अशुद्ध होगी, तो पर्यायों का आधार द्रव्य भी * अशुद्ध ही होगा। यही बात आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव को इष्ट है। उन्होंने सत्य और की अभिव्यक्ति करते हुए लिखा है . ********** ********** **张张*********本张张张张张张张孝染染法染染法染法染法染染张
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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