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________________ ******** ज्ञानांकुशम् शंका : आत्मा अमूर्तिक है, फिर उसे कर्म का बन्ध कैसे होता है ? समाधान ऐसी एकान्त मान्यता नहीं रखनी चाहिये। कर्मबन्ध की अपेक्षा से आत्मा मूर्तिक भी है। आचार्य श्री नेमिचन्द्र कहते हैं . ववहारा मूत्ति बंधा दु | ( द्रव्यसंग्रह - अर्थात् बन्ध के कारण आत्मा व्यवहारनय से मूर्तिक हैं। अतः आत्मा को कर्मबन्ध होने में कोई दोष नहीं है। कर्म के दो भेद हैं, द्रव्यकर्म और भावकर्म । उसमें से द्रव्यकर्म आठ प्रकार का है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । भावकर्म आत्मा की राग-द्वेषमयी परिणति है। वे आठों ही कर्म अनादिकाल से आत्मा के साथ बन्धनबद्ध है। = द. नोकर्म नो शब्द द्वयार्थक है, निषेधार्थक और ईषदर्थक। यहाँ नो शब्द का प्रयोग ईषदार्थ में हुआ है। जो कर्म के सहकारी होते हुए भी कर्मों के समान आत्मा के गुणों का घात करने में असमर्थ होते हैं. अथवा जो आत्मा को गत्यादिकरूप पराधीन नहीं बना सकते, वे नोकर्म हैं। ४३ इन्हें नोकर्म कहने का प्रमुख कारण यह है कि वे भावकर्म की तरह द्रव्यकर्मों के निर्माता नहीं हैं तथा द्रव्यकर्मों की तरह भावकर्मों की उत्पादक सामग्री नहीं हैं। उनको स्वतन्त्र कर्म भी नहीं कहा जा सकता। हाँ, कर्म करते समय और कर्मों का फल भोगते समय ये नोकर्म सहायक जरुर बन जाते हैं। तात्पर्य यह है कि कर्मविपाक की सहायक सामग्री को नोकर्म कहते हैं। इसके नौ भेद हैं। यथा औदारिक. वैक्रियक और आहारक ये तीन शरीर तथा आहार शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन ये छह पर्याप्ति । ग्रंथकार कहते हैं कि जो योगी कर्म, नोकर्म, कषाय और नोकषाय इन चारों का त्याग करके मन को अतीन्द्रिय सर्वस्वरूप शुद्धात्मा के ध्यान में लगाता है, वे योगी परमात्मपद के अधिकारी बन * जाते हैं।
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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