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________________ ******* iqem ******* प्रवेश कर रही है। इस प्रचण्ड वायु के वेग के कारण आग्नेयी धारणा में संचित सारी भस्म उड़ गई है! वायु स्वयं धीरे-धीरे शान्त हो रही है। ऐसा चिन्तन करना मारुतिधारणा है। : ४. वारुणीधारणा धर्मध्यान का आराधक पुरुष ऐसा चिन्तन करें कि आकाश घने और काले-काले मेघों से आच्छादित हो गया है, बिजली चमक रही है, इन्द्रधनुष दिखाई दे रहे हैं। सर्वत्र सघन अन्धेरा छा गया है! बीच-बीच में होने वाली बादलों की भयंकर गड़गड़ाहट दशों दिशाओं को उद्वेलित कर रही है। उन मेघों से निकली हुयी स्वच्छ जलधाराओं से गगनमण्डल व्याप्त हो गया है। जलधारा हम पर पड़ने लगी है। उस धारा में आग्नेयी धारणा में संचित भस्म समूह बहा जा रहा है और मेरी * आत्मा निर्मल हो गयी है। ऐसा चिन्तन करना वारुणीधारणा है। ५. तत्त्वरूपवतीधारणा : अन्त में ध्यायक ऐसा चिन्तन करता है कि मैं सात धातुओ से रहित निर्मल आत्मा हूँ। मेरी कान्ति पूर्ण चन्द्रमा के समान देदीप्यमान है। मैं सर्वज्ञ हूँ। अतिशयों से युक्त सिंहासन पर मैं विराजमान हूँ। सुरपति, उरम्नाथ और नाशादि मेरी पूजा कर रहे हैं। मेरे आठों कर्म नष्ट हो गये हैं। मैं पुरुषाकार होकर सिद्ध परमेष्ठी की सदृशता को प्राप्त कर कर रहा हूँ। मैं जन्म, जरा, मरण से अतीत हो गया हूँ। मेरे अनन्त गुण प्रकट हो चुके हैं। मैं निकल परमात्मा हूँ । ऐसा चिन्तन करना तत्त्वरूपवतीधारणा है। 4-- उपस्थध्यान : आचार्य श्री देवसेन ने लिखा है. यारिसओ देहत्थो झाइज्जड़ देह बाहिरे तह य। अप्पा सुद्ध सहावो तं रूवत्थं फुडं झाण । । ( भावसंग्रह २३) अर्थात् : पिण्डस्थ ध्यान में कहे हुए अपने ही शरीर में स्थित अपने ही शुद्ध, निर्मल और अत्यन्त दैदीप्यमान आत्मा के ध्यान के समान शरीर के बाहर अपने ही शुद्ध निर्मल, अत्यन्त दैदीप्यमान आत्मा का ध्यान करना रूपस्थ धर्मध्यान है। - इसके दो भेद हैं स्वगत रूपस्थ और परगत रूपस्थ स्वगत रूपस्थ में स्वयं के शुद्धस्वरूप का व परगत रूपस्थ में अरिहन्त का ध्यान ********************
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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