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________________ ******** ज्ञानांकुशम् ******** * धर्मध्यान के भेद ************** * पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं ,पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्व चिद्रूपं, रूपातीतं निरञ्जनम् ॥१४॥ अन्वयार्थ : *(मन्त्र) मन्त्र (वाक्यस्थम्) वाक्यों का ध्यान (पदस्थम्) पदस्थ है। (स्वात्म) * स्वात्म (चिन्तनम्) चिन्तन (पिण्डस्थम्) पिण्डस्थध्यान है। (सर्व) सम्पूर्ण (चिद्रूपम्) चिद्रूप का ध्यान (रूपस्थम्) रूपस्थ है। (निरञ्जनम्) निरंजन * ध्यान (रूपातीतम्) रूपातीत है। अर्थ : मन्त्रवाक्यों का चिन्तन करना पदस्थध्यान है। स्वात्मचिन्तन पिण्डस्थध्यान है, चिद्रूप का ध्यान रूपस्थध्यान है तथा निरंजन सिद्धों का ध्यान रूपातीतध्यान है। * भावार्थ : चंचल मन को किसी एक विषय में स्थिर करना ध्यान है। शुभाशुभ के भेद से इसके दो भेद हैं। उनमें धर्मध्यान और शुक्लध्यान शुभध्यान हैं। धर्मध्यान भी घार प्रकार का माना गया है-पदस्थ. पिण्डस्थ. * रूपस्थ और रूपातीत। धर्मध्यान के इन्हीं चार भेदों का वर्णन प्रस्तुत * कारिका में किया गया है। *१-- पदस्थ : आचार्य श्री भास्करनन्दि ने लिखा है . तव नामपदं देव, मन्त्रमैकाग्यमीर्यतः। ___ जपतो ध्यानमाम्नातं, पदस्थं त्वत्प्रसादतः।। (ध्यानस्तव - २९)* ** अर्थात् : हे देव! तुम्हारे प्रसाद से जो एकाग्रता को प्राप्त होकर आपके *नामपद का (नाम के अक्षर स्वरूप मन्त्र का जाप करता है, उसके * * पदस्थध्यान कहा गया है। एक अक्षर को आदि लेकर अनेक प्रकार के परमेष्ठीवाचक पवित्र मन्त्रपदों का उच्चारण करके ध्यान किया जाता है वह पदस्थ* ध्यान कहलाता है। **********३६ **********
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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