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******** शानाशा ******** * २. कुर्वन् । आप्नोति, करता हुआ प्राप्त होता है।
द्वितीय सन्धिगत शब्द ज्यादा सार्थक प्रतीत होता है, क्योकि - ङमो ह्रस्वादचि अमुँण्नित्यम्
(लघु सिध्दान्त कौमुदी - ८९) हस्वात् परो यो इम् तदन्तं यत्पदं तस्मात्परस्याचो * * नित्यं इमँट।
अर्थात · गुम्बी पोजोम , वह है त में जिसके, ऐसा जो पद होता * है, उससे परे अच् को नित्य ङमुंद का आगम होता है। * कुर्वन् में न् के पूर्व ह्रस्व स्वर है, पश्चात् अच् है। अतः इमैंट का आगमन होगा।
कुर्वन् - ङमुँट् । आप्नोति। हलन्त्यम् ।
(लघु सिध्दान्त कौमुदी - १) उपदेशेऽन्त्यं हलित् स्यात् । * अर्थात् : उपदेश में वर्तमान अन्त्य हल् इत्संज्ञक होता है।
अतः इमुट् का ट् इत्संज्ञक हुआ। उकार उच्चारणमात्र के लिए है।
जहाँ ट् की इत्संज्ञा हो जाती है वहाँ इ . ण, न के साथ ईंट, * ऍट् अथवा हँट् आगम प्राप्त होंगे। * यहाँ कुर्वन् शब्द नकारान्त होने से नुडागम हुआ। उट् इत्संज्ञा को प्राप्त होने से नकार शेष रहा।
कुर्वन् . २ । आप्नोति, कुर्वन्नाप्नोति शब्द बना।
किन्तु श्लोक की संगति कुर्वन - न + आप्नोति ऐसी सन्धि * * करने पर ही बैठ रही है।
आगमशास्त्र और व्याकरणशास्त्र इन दोनों की संगति बैठाकर *ही अर्थ की प्रामाणिकता बनायी जा सकती है। दोनों के समन्वय के * * बिना अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता। अतः इस श्लोक का अर्थ करते समय * * मैंने दोनों ही अर्थ स्वीकार किये हैं। ********** ३३**********