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******** tip ******** * उसमें स्थिर नहीं हो पाता, क्योंकि अनादिकाल से इस जीव ने कभी * * आत्मा को नहीं देखा. उसे सुना नहीं और साधक को कभी उसका *
अनुभव भी नहीं हुआ। आजतक वह काम, भोग और बन्ध की कथाओं में ही रमण करता रहा। यही कारण है कि उसके लिए आत्मोपलब्धि * अतिशय कठिन हो गई है। * यही बात आचार्य श्री दुन्दकुन्द देव को इष्ट है। यथा
सुदपरिचिदाणुभूदा सव्यस्स वि कामभोगबंधकहा। एयत्तस्सुबलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ।।
(समयसार. ४) अर्थात् : सब हो लोकों के काम और भोगविषयक बंध की कथा तो
सुनने में, परिचय में और अनुभव में आई हुई है, इसलिए सुलभ है। * किन्तु परभावों से भिन्न आत्मा के एकत्व का लाभ उसने कभी न सुना,* *न परिचय में आया और न अनुभव में आया, इसलिए सुलभ नहीं है। *
विषय-कषायों से बचने के लिए तथा आत्मस्वरूप मे स्थिरता * प्राप्त करने के लिए कुछ बाह्य निमित्तों की आवश्यकता होती है। * जिनभक्त्याौद्ध क्रियाएँ बाह्य निमित्त हैं। अतः वे संसार की कारण नही * हैं अपितु मोक्षमार्ग की साधकसामग्री है। * हाँ, यदि निजात्मस्वभाव का लक्ष्य ही न हो तथा द्रव्यक्रियाएँ * इन्द्रियसुख और निदान के लक्ष्य से की जाती हैं, तो अवश्य संसार का कारण बनती हैं।
यही आशय आगमरसिक श्री रत्नकीर्ति देव ने आराधनासार में * व्यक्त किया है। (गाथा २० की टीका * आचार्य श्री ब्रह्मदत्त लिखते हैं -
यथा कोऽपि रामदेवादिपुरुषविशेषो देशान्तरस्थित सीतादि । * स्त्रीसमीपागत्यनां पुरुषाणां तदर्थं संभाषणदानसन्मानादिकं करोति * * तथा तेऽपि महापुरुषाः वीतरागपरमानन्दैकरूप मोक्षलक्ष्मी * सुखसुधारसपिपासिताः सन्तः संसारस्थितिविच्छेदकारणं *विषयकषायोत्पा दुानविनाशहेतुभूतं च परमेष्ठि * ********** *********
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