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********* ज्ञाबांकुशम्
* असत्य होने का प्रसंग उपस्थित नहीं होता है ?
समाधान: ऐसा नहीं कहना चाहिये। आवश्यकों का वर्णन शुभोपयोगी श्रमणों के लिए किया गया है। अतः इनका अनुपालन शुभोपयोग में .स्थित रहने वाले साधुओं के द्वारा किया जाता है।
षडावश्यक कर्म पूर्णतया हेय हैं, ऐसा ग्रंथकार का मन्तव्य नहीं है। ग्रंथकार के मतानुसार ध्यानावस्था में विकल्पोत्पादक कर्म हेय हैं। 'अन्य अवस्था में भेद व अभेदरत्नत्रय में साध्य साधन का सम्बन्ध जानना चाहिये।
ध्यानावस्था में भेदरत्नत्रय विषकुंभ है, ऐसा आचार्य श्री देव कहते हैं। यथा
पडिकमणं पडिसरणं पडिहारो धारणा नियती य । जिंदा गरहा सोही अठ्ठविहो होदि विसकुंभो ।।
( समयसार : ३०६) अर्थात् : प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, प्रतिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गह और प्रत्याख्यान ये आठ प्रकार का विषकुंभ हैं।
यहाँ इस तथ्य को नहीं भूलना चाहिये कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द • देव जैसे परम चारित्रवान् सन्त चारित्र के आधारभूत प्रतिक्रमणादि को विषकुंभ की संज्ञा दे रहे हैं । इस कथन के पीछे एक ही रहस्य है कि ध्यान के काल में प्रतिक्रमणादिकों का विकल्प साधु को परम चारित्र अर्थात् निश्चय चारित्र से दूर रखता है। अतः जबतक आत्मस्वरूप में लीन होने की पात्रता का आविर्भाव नहीं हो जाता, तबतक उसकी प्राप्ति का लक्ष्य मन में रखकर प्रतिक्रमणादि द्रव्यक्रियाओं का अवलम्बन लेना चाहिये । यदि निश्चयचारित्र का लक्ष्य मन में न हो और व्यावहारिक क्रियाओं का अनुष्ठान अत्यन्त विधिपूर्वक करते हो तो भी आत्मकल्याण नहीं हो सकता है ।
कुन्दकुन्द
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योग के काल में अशुभ विचारों के समान शुभविचार भी त्याज्य है, क्योंकि विचार चाहे शुभ हो या अशुभ कषायात्मक हैं। कषाय और - योग बन्धप्रत्यय हैं। अतः योगीगण विचारों को तजकर निर्मल आत्म'स्वभाव में लीन हो जाते हैं ।
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