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________________ ******* tipe ज्ञानांकुशम् ******* शुक्र है, तीन अंजुलि प्रमाण वसा है, उससे दुगुना पित्त है, उतना ही कफ है, खून अर्ध आढक प्रमाण है, सूत्र एक आदक प्रमाण है और छह सेर मल है। इस तरह अनेक अप्रवित्र पदार्थ शरीर में रहते हैं। ३. शरीर से अपवित्र पदार्थ बहते हैं। शरीर धर्म से ढका होने के कारण इसके भीतर में भरा हुआ मैल दिखता नहीं है। इस शरीर में नौ द्वार हैं, जो प्रतिक्षण मल बहाते हैं । दो कान, दो आँखें, दो नासा छिद्र, मुख, मलद्वार और मूत्रद्वार। इन नवद्वारों से मल निकल कर घृणा उत्पन्न करता है। फोड़ा आदि होने पर जो पीप निकलता है, उसको तो देखने के भाव नहीं होते। इसतरह शरीर से अपवित्र पदार्थ बहते हैं। ४. शरीर के संसर्ग से शुद्ध पदार्थ भी अशुद्ध होते हैं। आचार्य श्री पूज्यपाद लिखते हैंभवन्ति प्राप्य यत्संगमशुचीनि शुचीन्यपि । सकाय: संततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा । । पदार्थों को यह शरीर अपवित्र कर देता है। ५. शरीर में अनेक रोग हैं। चिकित्साशास्त्रियों का कथन है कि शरीरं व्याधि मन्दिरम् । अर्थात् जिसके सम्बन्ध को पाकर पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो जाते हैं, वह शरीर हमेशा ताप को उत्पन्न करने वाला है। अतः शरीर के लिए कुछ चाहना वृथा है। शरीर के संसर्ग में आने वाले वस्त्र, भोजन, मालादि समस्त अर्थात् : शरीर व्याधियों का मन्दिर है । (इष्टोपदेश १८) - - आचार्य श्री कुन्दकुन्द लिखते हैं एक्केक्कंगुलिवाही छण्णवादी होंति जाण मणुयाणं । अवसेसे य सरीरे रोया भण कित्तिया भणिया । । (भावप्राभृत ३७) अर्थात् : हे जीव ! मनुष्यों के एक एक अंगुल में छियानवें - छियानवें ******* -
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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