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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
शंका चाल यदि वा स्यान्मतं ते व्यतिरेक नान्वयः कटाप्यस्ति ।
न तथा पक्षच्युतिरिह व्यतिरेकोऽप्यन्वये यतो न स्यात् ॥ २९४ ॥ अर्थ - यदि कदाचित् तुम्हारा ऐसा सिद्धान्त हो कि व्यतिरेक में अन्वय कभी नहीं रहता है तो भी हमारे पक्ष का खण्डन नहीं होता है क्योंकि जिस प्रकार व्यतिरेक में अन्वयही रहता है, इसी प्रकमा अथा में व्यतिरेक भी नहीं रहता है।
शंका चालू तस्मादिटमनवयं केवलमयमन्वयो यथारित तथा ।
व्यतिरेकोस्त्यतिशेषादेकोक्त्या चैकराः समानतया ॥ २९५ ॥ अर्थ - इसलिये यह बात निर्दोष सिद्ध है कि जिस प्रकार केवल अन्वय है, उसी प्रकार व्यतिरेक भी है। क्योंकि इनमें कोई विशेषता नहीं है। सामान्य दृष्टि से दोनों समान हैं, स्वतन्त्र हैं। जैसे अन्वय कहा जाता है वैसे ही व्यतिरेक भी कहा जाता है।
शंका चालू दृष्टांतोऽप्यरित घटो यथा तथा स्वरवरूपतोरित पटः ।
न घटः पटेऽथ न पटो घटेपि भवतोऽथ घटपटाविह हि ॥ २९६॥ अर्थ - दृष्टांत भी इस विषय में घट-पट का ले लीजिये। जिस प्रकार घट अपने स्वरूप को लिये हुये जुदा है, उसी प्रकार अपने स्वरूप को लिये हुए पट भी जुदा है। पट में घट नहीं रहता है और न घट में पट ही रहता है किन्तु घट और पट दोनों जुदे-जुदै स्वतन्त्र हैं।
शंका चालू न पटाभावो हि घटो न पटाभावे घटस्य निष्पत्तिः ।
न घटाभावो हि पटः पटसों वा घटव्ययादिति चेत ॥ २९७॥ अर्थ - जिस प्रकार पट का अभाव घट नहीं है और न पट के अभाव में घट की उत्पति ही होती है। उसी प्रकार पट भी घट का अभाव नहीं है और न पद के अभाव से पट की उत्पत्ति ही होती है।
शंका चालू तत्ति व्यतिरेकस्यभावेन विनाऽन्वयोपि नास्तीति ।
अस्त्यन्वयः स्वरूपादिति वक्तुं शक्यते यतस्त्विति चेत् ॥ २९८ ॥ अर्थ - ऐसी अवस्था में आपका (ग्रंथकार का) यह कहना कि व्यतिरेक के अभाव में अन्वय भी नहीं होता है, ठीक नहीं है, क्योंकि घट-पट की तरह हम यह कह सकते हैं कि अन्वय अपने स्वरूप से जुदा है और व्यतिरेक अपने स्वरूप से जुदा है। ऐसी अवस्था में बिना व्यतिरेक के भी अन्वय हो सकता है?
भावार्थ - ऊपर कहे हुये कथन के अनुसार शंकाकार अन्वय को स्वतन्त्र मानता है और व्यतिरेक को स्वतन्त्र मानता है। वस्तु को वह सापेक्ष उभयधर्मात्मक नहीं मानता है।
नोट - शंकाकार ने वही भूल की है जिसकी हम आपको प्रारंभ से ही कई बार चेतावनी दे चुके हैं कि महासत्ता (अस्ति) और अवान्तर सत्ता ( मास्ति) को एक ही द्रव्य के सामान्य विशेष पर लगाना चाहिए, दो द्रव्यों पर नहीं। शंकाकार ने उसी भूल अनुसार दो द्रव्यों पर घट-पट पर या चेतन-अचेतन पर अस्ति-नास्ति लगा दिया है। सो अब ग्रंथकार उसे कहेंगे कि ये दो द्रव्यों पर न लगकर एक के सामान्य विशेष पर ही लगता है। जो ऐसा जानता है वह स्याद्वादी है और जो ऐसा नहीं जानता वह सिंहमाणावक है - मूर्ख-पशु-अज्ञानी है। हाँ जहाँ एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अत्यन्ताभाव सिद्ध करना हो वहाँ दो द्रव्यों पर लगाया जाता है पर वह प्रकरण यहाँ नहीं है। यह भूल प्रायः बहुत विद्वान करते हैं। आपसे न हो जाये। ठीक यही शंका पहले श्लोक नं. १६ तथा १८ में हो चुकी है और उसका उत्तर भी पूर्व नं. १५, १७, १८ में हो चुका है। उसे एक बार फिर पढ़िये।