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________________ द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक कषाय उपसंहार इत्यनेने कराया वापरयौदयिकाः स्मृताः । चारित्रस्य गुणरयारय पर्याया वैकृतात्मनः ॥ १८३९ ।। अन्वयः - इति एवं ते कषायाख्याः चत्वारः अपि औदयिकाः स्मृताः [यतः ] अस्य चारित्रस्य गुणस्य कृतात्मनः पर्यायाः। अन्वयार्थ - इस प्रकार वे कषाय नामक चार भाव भी औदयिक माने गये हैं क्योंकि वे इस चारित्र गुण की विभाव स्वरूप पर्यायें हैं [ भावार्थ पूर्व सूत्रों में स्पष्ट हो चुका है ]| __ भावार्थ - आपको यह शङ्का हो सकती है कि सूत्र १८२८ से १८३५ तक जो भावमोह का वर्णन किया है उसका कपाय से क्या सम्बन्ध [प्रयोजन] है? इसका उत्तर यह है कि कषायें उस मोहभाव के ही अवान्तरगत है। भावमोह के २ भेद हैं - दर्शनमोह और चारित्रमोह। चारित्रमोह तो सम्पूर्ण कषाय रूप ही है और दर्शनमोह भी एक प्रकार से कषाय रूप ही है क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व की घातक मानी गई है। इसलिये भावमोह की आड़ में यहाँ कषाय के स्वरूप का ही वर्णन किया गया है। यह कषाय भाव ही सम्पूर्ण अनर्थ और संसार उत्पत्ति का मूल कारण है। अत: ज्ञानियों को इन्हें छोड़ देना चाहिये और स्वभाव का आश्रय करना चाहिये। निजज्ञायक स्वभाव के आश्रय से ये स्वयं छूट जाती हैं। इनकी उत्पत्ति ही नहीं होती। लिंग (वेद) औदयिक भाव (सूत्र १८४० से १८६३ तक २४) भाव लिङ्गों के भेद, कारण तथा औदयिकपने की सिद्धि लिङ्गान्यौदयिकान्येव त्रीणि स्त्रीपन्जपंसकात । भेदाद्वा नोकषायाणां कर्मणामुदयात् किल ॥ १८४० ।। अन्वय: - स्त्री पुनपुंसकात् लिङ्गानि चीणि वा कर्मणां नोकपायाणां भेदात् उदयात् किल औदयिकानि एव । अन्वयार्थ - पुरुष-नपुंसक के भेद से लिङ्ग भाव तीन हैं क्योंकि ये द्रव्य कर्मों के नोकषायों के तीन भेदों के उदय के अनुसरण से होते हैं इसलिये वास्तव में औदयिक भाव ही हैं। भावार्थ - लिङ्ग भाव चारित्र गुण का विभाव परिणमन है। यह भाव तीन प्रकार का है।(१) पुंवेद-स्त्री से रमणे की इच्छा रूप भाव को पुंवेद कहते हैं। (२) स्त्रीवेद - पुरुष से रमणे की इच्छा रूप भाव को स्वीवेद कहते हैं। (३) नपुंसकवेद - स्त्री-पुरुष दोनों से रमणे की इच्छा रूप भाव को नपुंसकवेद कहते हैं किन्तु रमण किसी से नहीं कर सकता है। केवल अन्दर ही अन्दर काम की पीड़ा से जलता रहता है। यह तो उपादान की अपेक्षा कथन हुआ-अब निमित्त कारण का भी ज्ञान कराते हैं। एक चारित्रमोह नाभा द्रव्यकर्म है। उसके दो भेद हैं। कषाय-वेदनीय तथा नोकषायवेदनीय। जिसका उदय क्रोध मान माया लोभ रूप कषायों के वेदन में निमित्त है वह कषायवेदनीय है और जिसका उदय हास्यादि नोकषायों के वेदन में निमित्त है - वह नोकषाय वेदनीय कर्म है। उस नोकपायवेदनीय के ९ भेद हैं। उनमें अन्तिम तीन भेद ये लिङ्ग नाम के कर्म हैं। वे ३ कर्म प्रकृतियां इन तीन प्रकार के भाववेदों में निमित्त हैं। और क्योंकि इन भाव वेदों की उत्पत्ति में कारण इन तीन कर्मों का उदय है - अत: ये निश्चय से औदयिक भाव हैं। विभाव रूप हैं। वैभाविक भाव हैं। इस प्रकार इस सूत्र में भावलिङ्गों का वर्णन, उनके भेद तथा निमित्तकारण के निर्देश पूर्वक उनमें औदयिकपने की सिद्धि की गई है। इसी को अगले तीन सूत्रों में वर्णन किया गया है अतः उन सूत्रों का अब पृथक्-पृथक् भावार्थ लिखने की आवश्यकता नहीं रही। चारित्रमोह कर्म के भेद-कषाय और नोकषाय चारित्रमोहकमैतद द्विविध परमागमात। आयं कषायमित्युक्तं नोकषायं द्वितीयकम ॥ १८४१॥ अन्वयः - एतत् चारित्रमोहकर्म आगमात् द्विविधं। आद्यं कषायं द्वितीयं नोकषायं इति उक्तं । अन्वयार्थ - यह चारित्रमोह कर्म आगम में दो प्रकार-पहला कषाय दसरा नोकषाय-इसप्रकार कहा गया है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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