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द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक
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कषाय औदयिकभाव (सूत्र १८२१ से १८३९ तक १९)
कषायों के भेद सूत्र १८२१ से १८२३ तक ३ कषायाश्चापि चत्वारो जीवस्यौदयिकाः स्मृताः ।
क्रोधो मानोऽथ माया च लोभश्चेति चतुष्टयात् ॥ १८२१॥ अन्वयः - क्रोधः मानः अथ माया च लोभः इति चतुष्टयात् कषायाः अपि चत्वारः च जीवस्य औदयिकाः स्मृताः।
अन्वयार्थ- क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकार से कषाय भी[गति भाव की तरह ] चार है और [ये चारों कषाय भाव ] जीव के औदयिक भाव माने गये हैं। क्योंकि चारित्रमोह कर्म के उदय में जुड़ने से उत्पन्न होते हैं |
ते चामोतरभेदैश्च नामतोऽप्यत्र षोडश ।
पञ्चविंशतिकारचापि लोकासंरख्यातमात्रकाः || १८२२॥ अन्वयः - च तें आत्मोत्तरभेदैः च नामतः अपि अत्र षोडश च पञ्चविंशत्तिकाः अपि लोकासंख्यातमात्रकाः।
अन्वयार्थ - और वे चार कषाय अपने उत्तर भेदों से और नाम से भी यहाँ १६ हैं और १५ भी हैं अथवा असंख्यातलोक प्रमाण हैं।
अथवा शक्तितोऽनन्ताः कषाया: कल्मवात्मका: ।
यस्मादेकैकमाला प्रत्यनन्ताश्च शवतयः || १८२३॥ अन्वयः - अथवा कल्मषात्मकाः कषायाः शक्तित: अनन्ता: यस्मात् एकैकं आलापं प्रति अनन्ताः शक्तयः।
अन्वयार्थ - अधवा कलुषित स्वरूप वेकवायें शक्ति से अनन्त प्रकार है क्योंकि एक-एक आलाप के प्रति अनन्त शक्तियाँ हैं।
सूत्र १८२१ से १८२३ तक का भावार्थ - सामान्य रूप से क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषाय के ४ भेद हैं। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, संज्वलन इन अवान्तर भेदों की अपेक्षा से इनके १६ भेद हैं। इनमें हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद इन ९ कषायों को जोड़ देने से २५ भेद हैं। इनके अवान्तर भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं और फिर प्रत्येक भेद में अनन्त शक्ति के अविभाग प्रतिच्छेद होने से अनन्त भेद भी हैं।
कषायों का स्वरूप अस्ति जीतस्य चारिनं गुण: शुद्धत्वशक्तिमान् ।
बैकृतोऽस्ति स चारित्रमोहकोटयादिह ॥ १८२५॥ अन्वयः - जीवस्य शुद्धत्वशक्तिमान् चारित्रं गुणः अस्ति। सः इह चारित्रमोहकर्मोदयात् वैकृतः अस्ति।
अन्वयार्थ - जीव का शुद्धत्वशक्तियुक्त [वीतरागतारूप] चारित्र गुण है। वह यहाँ चारित्रमोह कर्म के उदय से [उदय में जुड़ने से ] विकारी है। [ये कषायें उस शुद्ध चारित्र गुण की विभाव पर्यायें हैं ।
भावार्थ - विकार या मलिनता सदापर्याय में आया करती है । गुण सदा निर्मल रहते हैं। कर्मों का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी पर्याय के साथ होता है। गुण के साथ नहीं - यह अध्यात्म का त्रिकाल अबाधित नियम है। इसी के आधार पर ग्रन्थकार समझाते हैं कि कषायें क्या है ? तो उत्तर देते हैं कि वे शुद्ध पारिणामिक स्वभाव का अंश नहीं है। सब गुणों में या किसी एक चारित्र गण में भी नहीं है। चारित्र गुण तो त्रिकाल शक्तिरूप शुद्ध है। वीतरागता रूप है। यह तो केवल उस चारित्र गुण का विभाव परिणमन है। जब जीव अपने ज्ञायक स्वभाव को चूककर द्रव्यचारित्रमोह का आश्रय करता है तो एक समय के लिये पर्याय में चारित्र गुण का क्षणिक विभाव परिणमन कषाय रूप हो जाता है और ज्ञायक स्वभाव का आश्रय अच्छी तरह करते ही यह कषाय भाव तुरन्त नष्ट भी हो जाता है। इसलिये ये कषायें चारित्र गुण का एक समय का विभाव परिणमन मात्र है - ऐसा सूत्र का अभिप्राय है।
चारित्रमोह के २ भेद-द्रव्यचारित्रमोह और भावचारित्रमोह तरमाच्चारित्रमोहश्च तदेदाद द्विविधो भवेत् ।
पदगलो दव्यरूपोऽस्ति भावरूपोऽस्ति चिन्मयः ॥ १८२५॥ अन्वयः - तस्मात् चारित्रमोहः तभेदात् द्विविधः भवेत् । पुद्गलः द्रव्यरूपः अस्ति। भावरूपः चिन्मयः अस्ति।