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द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक
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__अन्वयार्थ - और जो एक ही तत्व[ एक ही वस्तु - एक ही द्रव्य ] नित्यानित्यात्मक आदि रूप एक ही साथ [ एक समय में ] है - वह ऐसा है भी या नहीं इस प्रकार मिथ्यादृष्टि विरुद्ध होने से संशय करता है।
भावार्थ - दूसरी सारी पुस्तक में जो यह सिद्ध किया गया है कि प्रत्येक द्रव्य नित्य-अनित्य, तत्-अतत्, अस्तिनास्ति, एक-अनेक, इन ४ युगलों से गुम्फित है अर्थात् वस्तु अनेकान्तात्मक है-इसे वह नहीं मानता क्योंकि इन युगलों में दो-दो धर्मों में परस्पर विरुद्धता है जो उसके ज्ञान में नहीं बैठती या उसे नहीं जंचती। वह तो यह समझता है कि जैसे अन्धेरा-चान्दना या ठण्डा-गर्म दो विरोधी पदार्थ एक साथ नहीं रह सकते - उसी प्रकार ये नित्य-अनित्य आदि विरोधी धर्म एक पदार्थ में नहीं रह सकते किन्तु वह यह नहीं जानता कि अन्धेरा-चान्दना या ठण्डा-गरम तो पर्याय हैं जो वास्तव में विरोधी होने से एक साथ नहीं रह सकते पर नित्यानित्य आदि युगल तो गुण पर्याय में रहते हैं। गुण पर्याय में विरोधी धर्म रह सकते हैं जैसे शक्ति रूप गुण में सम्यक्त्व और पर्याय में मिथ्यात्व, गुण में सुख पर्याय में दुःख। हाँ पर्याय में एक साथ सम्यक्त्व मिथ्यात्व आदि विरुद्ध वस्तुएँ नहीं रह सकती सो हम भी मानते हैं पर बेचारे मिथ्यादृष्टि को गुण पर्याय का [सामान्य विशेष का] ज्ञान ही कहाँ है।
अप्यनात्मीयभावेषु यावन्नोकर्मकर्मसु ।
अहमात्मेति बुद्रिा दृढमोहस्य विजृम्भितम || १८१५ ॥ अन्वयः - अपि यावत् नोकर्मकर्मसु अनात्मीयभावेषु 'अहं आत्मा' इति या बुद्धिः अस्ति [ तावत् ] दमोहस्य विजृम्भितम्।
अन्वयार्थ - और जो, नोकर्म और भावक रूप अनात्मीय भावों में [ पर भावों में ]''ये मैं आत्मा हूँ" ऐसी जो बुद्धि है - वह सब दर्शनमोह का विस्तार है।
भावार्थ - मैं गोरा हूँ, काला हूँ, पीला हूँ, मोटा हूँ, छोटा हूँ। इत्यादि रूप शरीर धर्मों में आपा मानना नोकर्मों में आत्मबुद्धि है और मैं क्रोधी हूँ - तुम्हें जान से मारूँगा, मैं लोभी हूँ, मैं मानी हूँ, मैं दयालु हूँ, - तुम्हें बचाऊँगा, सुखीदुःखी करूँगा इत्यादिक भावों में आपा मानना भावकर्मों में आत्मबुद्धि है। यह भी मिथ्यात्व से होती है।
अदेवे देवबुद्धिः स्यादगुरौ गुरुधीरिह ।
अधर्मे धर्मवज्ञानं दृमोहस्यानुशासनात् ॥ १८१६ ।। अन्वयः - इह अदेवे देवबुद्धिः, अगुरी गुरुधी: अधर्म धर्मवत् ज्ञानं दमोहस्य अनुशासनात् स्यात् ।
अन्वयार्थ - और इस लोक में अदेव या कुदेव में देवबुद्धि,अगुरु या कुगुरु में गुरुबुद्धि, अधर्म याकुधर्म में धर्मवत् ज्ञान [अधर्म को धर्मवत् जानना] मिथ्यात्व के अनुशासन से होता है।
भावार्थ - हरिहर आदि अन्यमत के झूठे देवों में अरहन्त देववत् मान्यता का होना मिथ्यात्व है। परिग्रही-विषयी या विपरीत वस्तु के श्रद्धानी गुरुवों में आचार्य-उपाध्याय-साधुओं जैसी गुरुबुद्धि होना मिथ्यात्व है। धर्म तो केवल शुद्ध सम्यक्त्व या शुद्ध चारित्र भाव है जो मोहक्षोभ रहित आत्मा का स्वाभाविक परिणमन है। उसके अतिरिक्त हिंसामय अन्यमतों के बताये हुये पाखण्ड मार्ग को धर्म मानना या पुद्गलाश्रित क्रियाओं को [ मन, वचन, काय की शुभ क्रियाओं को] धर्म मानना या शुभ विकल्प को धर्म मानना अधर्म में धर्मबुद्धि है - जो मिथ्यात्व है।
धनधान्यसुताार्थ मिथ्यादेवं दुराशयः ।
सेवते कुत्सितं कर्म कुर्याद्वा मोहशासनात् ॥ १८१७ ।। अन्वयः - दुराशयः मोहशासनात् धनधान्यसुताद्यर्थं मिथ्यादेवं सेवते वा कुत्सितं कर्म कुर्यात् ।
अन्वयार्थ - खोटे आशय वाला [झूठी आशा रखनेवाला ] मिथ्यादृष्टि जीव मोह के शासन से [ मोहभाव के वशीभूत होकर ] धन-धान्य, सुता आदि के लिये झूठे देव को सेता है अथवा अनेक खोटे कुकर्मों को करता है। ___ भावार्थ - मिथ्यादृष्टि पुत्र, धन आदि की प्राप्ति के लिये क्या-क्या नहीं करता। शीतला को पूजता है। अम्बा देवी
आदि जाता है। जन्त्र-मन्त्र-तन्त्र वादियों के पीछे फिरता है। अनेक प्रकार की पशुबलि आदि हिंसा करता है। अनेक स्थानों को सेवता है। पीपल तक को पूजता है। कहाँ तक कहें - मिध्यात्व के प्रभाव से धन, पुत्र आदि परवस्तुओं का