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द्वितीय खण्ड / सातवीं पुस्तक
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अन्वयार्थ जैसे दर्शनमोह का उदय सम्यक्त्व को लोपता है उसीप्रकार ज्ञान के आवरण का उदय आत्मा के ज्ञान को ढक देता है।
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[ नोट निमित्त का ज्ञान कराने के लिये और जीव की उस काल में कैसी योग्यता है उसे बतलाने के लिये निमित्त की मुख्यता से कथन किया है वास्तव में जड़ कर्म तो सर्वथा अजीव हैं, अचेतन हैं वह जीव के भाव बननेबिगड़ने में सच्चा कारण नहीं है ऐसा सर्वत्र समझना ] ।
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तथा
यथा ज्ञानस्य निर्णाशो ज्ञानस्यावरणोदयात् । दर्शनावरणोदयात् ॥ १७५७ ॥ यथा धाराधराकारै गुण्ठितस्यांशुमालिनः । नाविर्भावः प्रकाशस्य द्रव्यादेशात्स्तोऽपि वा ॥ १७५८ ॥
दर्शननिणांशो
अन्वयः - यथा ज्ञानस्य आवरणोदयात् ज्ञानस्य निर्णाश: [ भवति ] तथा दर्शनावरणोदयात् दर्शननिणांशः [ भवति ] | यथा धाराधराकारै गुण्ठितस्य आंशुमालिनः प्रकाशस्य द्रव्यादेशात् सतः अपि आविर्भावः न ।
अन्वयार्थं जैसे ज्ञान के आवरण के उदय से ज्ञान का नाश होता है उसी प्रकार दर्शनावरण के उदय से दर्शन
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का नाश होता है। जैसे मेघों के द्वारा आच्छादित सूर्य के प्रकाश का यद्यपि द्रव्य के आदेश से [ द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से ] विद्यमान है तो भी उसका आविर्भाव [ प्रगटता ] नहीं है [ उसीप्रकार यद्यपि द्रव्यार्थिक दृष्टि से गुण में सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन विद्यमान है पर पर्याय में वास्तव में प्रगटता नहीं है ]
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यत्पुनर्ज्ञानमज्ञानमस्ति रूढिवादिह ।
तन्नौदयिकमस्त्यरित क्षायोपशमिकं किल ॥ १७५९ ॥
अन्वयः - पुनः यत् इह रूढिवशात् ज्ञानं अज्ञानं अस्ति तत् न औदयिक अस्ति किल क्षायोपशमिकं अस्ति । अन्वयार्थ और जो यहाँ रूढ़ि के वश से ज्ञान अज्ञान कहा जाता है वह औदयिक नहीं है वास्तव में क्षायोपशमिक है।
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भावार्थ - यहाँ कुमति कुश्रुत विभङ्ग से आशय है । ये क्षायोपशमिक भाव हैं। इनका नाम अज्ञान या कुज्ञान भी है। औदयिक भावों में इनका ग्रहण नहीं है। औदयिक भावों में जो अज्ञान है वह वास्तव में औदयिक है पर उसका इस सूत्र में प्रकरण नहीं है।
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अस्ति केवलज्ञानं यत्सदावरणातृतम् ।
स्वापूर्वार्थान् परिच्छेत्तुं नालं मूच्छितजन्तुवत् ॥ १७६० ॥
अन्वयः - यत् केवलज्ञानं अस्ति तत् तदावरणावृतं अस्ति यतः मूर्च्छितजन्तुवत् स्वापूर्वार्थान् परिच्छेत्तुं न अलं । अन्वयार्थ - जो केवलज्ञान है वह उसके आवरण [ केवलज्ञानावरण] से आवृत्त [ ढका हुआ ] है जिसके कारण मूच्छित प्राणी की तरह स्व और अपूर्वार्थों को जानने के लिये समर्थ नहीं है [ अर्थात् एक समय में स्व और पर सब को नहीं जान सकता है ] ।
यद्वा स्यादवधिज्ञानं ज्ञानं वा स्वान्तपर्ययम् । नार्थक्रियासमर्थ स्यात्तत्तदावरणावृत्तम् || १७६१ ॥
अन्वयः - यद्वा अवधिज्ञानं वा स्वान्तपर्ययं ज्ञानं अस्ति [ तत् ] तदावरणवृत अर्थक्रियासमर्थ न स्यात् । अन्वयार्थ अथवा जो अवधिज्ञान अथवा मन:पर्यय ज्ञान है वह अपने आवरण से आवृत अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं है [ अर्थात् अपने विषय को नहीं जान सकता है ]।
मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं तत्तदावरणावृतम् । यद्यावतोदयांशेल स्थितं तावदपन्हुतम् ॥। १७६२ ॥
अन्वयः - मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं तत्तदावरणावृतं यत् यावता उदयांशेन स्थितं तावत् अपद्भुतम् ।
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अन्वयार्थ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भी उस उस आवरण से ढका हुआ जितने उदय अंश से स्थित है उतना तिरोहित है [ ढका हुआ है - अप्रगट है ]।