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द्वितीय खण्ड/ छठी पुस्तक
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हो और वह हो तो उसकी सिद्धि हो- इसप्रकार एक भी सिद्ध न हो सकेगा - यह असिद्धत्व दोष आयेगा। अर्थात् दोष ही दोष आयेंगे - पदार्थ की कुछ भी सिद्धि न हो सकेगी।
दृमोहस्योदयो नाम रागायत्तोऽस्ति चेन्मतम् ।
सोऽपि रागोऽस्ति स्वायत्त: क्रिस्यादपररागसाल ॥ १६९३॥ अर्थ – यदि अभी भी तम्हारी ऐसी मान्यता है कि दर्शन-मोह का उदय राग के आधीन है तो वह राग भी अपने आधीन है या दूसरे राग से है।
भावार्थ - अगर तुम्हारा यही सिद्धान्त है कि एक-दूसरे के आधीन होना ही चाहिये और इसलिये दर्शनमोह का उदय राग के आधीन है तो अच्छा बताओ - वह राग किस के आधीन है? अपने आधीन है या दूसरे राग के आधीन है। यदि दूसरे राग के आधीन कहोगे तो हम पूछेगे कि वह दूसरा राग किसके आधीन है। इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा। अतः तुम्हें यही कहना पड़ेगा कि वह राग अपने आधीन है। तो
स्वायत्तश्चेच्च चारित्रस्य मोहस्योदयात्रचतः ।
यथा रावास्तथा चायं स्वायत्तः स्तोदयात्रवतः ॥१६९४ || अर्थ – यदि वह राग अपने आधीन है तो स्वतः चारित्रमोह के उदय से सिद्ध हुआ [दर्शनमोह के उदय से सिद्ध नहीं हुआ। और जैसे बह राग स्वाधीन है [अर्थात् दर्शनमोह के उदयाधीन नहीं है ] उसी प्रकार यह दर्शनमोह भी स्वाधीन है। अर्थात् राग के आधीन नहीं है ] और स्वत: अपने उदय से है [अर्थात् अपने उदय के स्वकाल की योग्यता से स्वयं उपशम से उदय हो जाता है। राग के कारण उदय नहीं होता]।
अथ चेत्तदद्वयोरेत सिद्भिश्चान्योन्यहेतुलः ।
ज्यायादसिद्धदोषः स्याद्दोषादन्योन्यसंश्रयात् ॥ १६९५ ॥ अर्थ - यदि उन दोनों [राग और दर्शनमोह ] की सिद्धि एक-दूसरे के कारण से होती है ऐसा कहोगे तो अन्योन्याश्रय दोष के कारण न्याय से असिद्ध दोष होगा [जिससे एक की भी सिद्धिन हो सकेगी। दोनों असिद्ध दोष के भागी होंगे। भावार्थ - अथवा यदि दोनों की ही सिद्धि एक-दूसरे से मानी जाये अर्थात् राग से दर्शनमोहनीय का उदय माना
हनीय के उदय से राग की उत्पत्ति मानी जाये तो अन्योन्याश्रय दोष के अन्तर्गत असिद्धत्व नाम का दोष आता है अर्थात् परस्पर एक की सिद्धि दूसरे के आधीन मानने से एक की भी सिद्धि नहीं हो सकती है क्योंकि जब तक एक सिद्ध हो जाय तब दूसरा सिद्ध हो। परस्पर की अपेक्षा में एक भी सिद्ध नहीं होता।
नागमः कश्चिदस्तीबग्घेतुईइमोहकर्मणः ।
रागस्तरम्याथ रागस्य तस्य हेतुईगावृत्ति: 11 १६९६ ॥ अर्थ - ऐसा कोई आगम[प्रमाण] भी नहीं है कि उस दर्शनमोह कर्म का राग कारण है और उस रागका कारण दर्शनमोहनीय का उदय है।
तरमात्सिद्धोऽस्ति सिद्धान्तो दृमोहस्येतरस्य वा ।
उदयोऽनुदयो वाथ स्थाटनन्यगतिः स्वतः ॥ १६९७॥ अर्थ - इसलिए यह सिद्धान्त सिद्ध हुआ कि दर्शनमोह का या दूसरे चारित्रमोह का उदय अथवा अनुदय स्वतः [किसी दूसरे हेतु के बिना ] अपने आप होता है - एक-दूसरे के कारण से नहीं होता[ यहाँ तक शिष्य की सूत्र १६८८, १६८९ में की गई शङ्का का समाधान किया।
विषय अनुसंधान - यहाँ तक गुरुदेव ने डटकर यह सिद्ध किया कि उस राग सम्यक्त्व से कोई सम्बन्ध नहीं है। वह तो चारित्र का विकार है। उसका सम्बन्ध उपादान दृष्टि से केवल चारित्र गुण से है और निमित्त दृष्टि से केवल चारित्रमोहनीय से है। जब यह सिद्ध हो गया कि राग का सम्यक्त्व से बिलकुल सम्बन्ध नहीं है तो स्वतः यह भी सिद्ध हो