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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी ।
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उपसंहार सर्वतश्योपसंहारः सिद्धश्चैतावतात्र ते ।
हेतुः स्यान्जोपयोगोऽयं दृशो वा बन्धमोक्षयोः ॥ १६५३ ॥
हाँ पर इतने कथन से सम्पर्णतया यही सारांश सिद्ध होता है कि यह उपयोग न तो सम्यग्दर्शन का ही कारण है और न बन्ध मोक्ष का ही कारण है। ____ भावार्थ -- यह विषय सूत्र १६२५ से प्रारम्भ हुआ था विचार यह कर रहे हैं कि जिस समय सम्यग्दृष्टि का उपयोग : स्व में रहता है तो उससे कुछ लाभ है या नहीं और जिस समय सम्यग्दृष्टि का उपयोग पर में जाता है - तो उससे कुछ हानि है या नहीं। लाभ तो आत्मा को सम्यग्दर्शन से है सो सम्यग्दर्शन का उपयोग कारण नहीं है। सम्यग्दर्शन का कारण तो मोह कर्म का अभाव है। दूसरा लाभ आत्मा को संबमिरा से है क्योकि संसार से मोक्ष होती है पर संवर निर्जरा में भी उपयोग कारण नहीं है। इसलिये उपयोग से लाभ तोकछ है नहीं। अब हानि का वि
की हानि बंध में है। बंध का कारण राग-द्वेष-मोह है उपयोग नहीं। इसलिये उपयोग से हानि भी नहीं। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि उपयोग न सम्यग्दर्शन का कारण है - न मोक्ष का कारण है -नबंध का कारण है अर्थात् उपयोग का लाभ-हानि से कुछ सम्बन्ध ही नहीं है। इसलिये यह बात ही भूल भरी है कि उपयोग के स्व में रहने से लाभ है और पर में जाने से हानि है। इसलिये भाई सम्यग्दृष्टि का उपयोग जो पर को जानने के लिये उपयुक्त होता है उसके । कारण से उसके सम्यग्दर्शन नमानना या ज्ञानचेतना न मानना या संवर निर्जरा न मानना या उसके कारण से उसे सविकल्प सम्यग्दृष्टि मानना - यह बात ही गलत है। यह इस सब कथन का सार है।
विषय अनुसंधान – उपयोग सम्यग्दर्शन का कारण नहीं है यह सूत्र १६३७ से १६४० तक सिद्ध किया। उपयोग मोक्ष का अर्थात् संवर निर्जरा का कारण नहीं है यह सूत्र १६४१, १६४२ में सिद्ध किया। उपयोग बंध का कारण नहीं है यह सूत्र १६४४ से १६६२ तक सिद्ध किया। इन सूत्रों के आधार पर उपसंहार करते हुए यहाँ लिखा है कि उपयोग का सम्यग्दर्शन तथा मोक्ष से कोई सम्बन्ध नहीं है - इसलिये तो उपयोग से आत्मा को लाभ नहीं है और उपयोग का बंध से कोई सम्बन्ध नहीं है इसलिये आत्मा को हानि नहीं है। शिष्य ने सत्र १६२५ में यह शंका की थी कि जब सम्यग्दष्टि का उपयोग पर में जाता है तो उससे कुछ हानि है या नहीं। उसका उत्तर यहाँ लाकर समाप्त किया है कि उपयोग का हानि-लाभ से कुछ सम्बन्ध ही नहीं है। अतः न उपयोग के स्व में रहने से लाभ है और न पर में जाने से हानि है।
सूत्र १६२५ से १६६३ तक का सार - शंकाकार की शङ्का नं. १६२५ के उत्तर में सम्यग्दृष्टि का उपयोग जिस समय स्व से छूट कर पर को जानने के लिये प्रवृत्त होता है उसमें यह सिद्ध किया कि ज्ञान का काम तो जानना है उसका सम्बन्ध सम्यग्दर्शन से नहीं है। शद्धि-अशद्धि से नहीं है। कर्म बंध से भी नहीं है। मोह के उदय-अनदय से भी नहीं है। हानि-लाभ से भी उसका कुछ सम्बन्ध नहीं है। संवर निर्जरा से भी उसका कुछ सम्बन्ध नहीं है। उसका काम तो ।। केवल जानने का है चाहे स्व को जाने, चाहे पर को जाने। दोनों को ही जानने का उसका स्वभाव है। यह उसकी लीला है। खेल है। वह बिना किसी कष्ट के क्षणमात्र में जानता है। संसार मुक्ति से उसका सम्बन्ध नहीं है - चाहे वह उपयोग स्व में उपयुक्त हो या पर में उपयुक्त हो।
शंका ननु चैवं स एवार्थों यः पूर्व प्रकृतो यथा । कस्यचिद्वीतरागस्य सदृष्टेझॉनचेतजा || १६६५ ॥ आत्मनोऽन्यत्र कुत्रापि स्थिते ज्ञाने परात्मसु ।
ज्ञानर्सचेतनायाः स्यात्क्षलिः साधीयसी तटा ॥ १६६५॥ शंका- इस प्रकार तो वह ही अर्थ निकला जो पहले प्रकरण में था। वह इस प्रकार कि किसी वीतराग सम्यग्दष्टी केही ज्ञानचेतना होती है क्योंकि आत्मा से भिन्न कहीं भी परपदार्थों में ज्ञान के[उपयोग के]स्थित होने पर ज्ञानचेतना की क्षति उस समय नियम से सिद्ध होती है।