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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
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भावार्थ - राग का निमित्त कारण मोहनीय कर्म है। सो उससे उपयोग का अविनाभाव कुछ भी सम्बन्ध ] नहीं । है। उपयोग का निमित्त ज्ञानावरण है। सो उस ज्ञानावरण को राग के साथ का कुछ सम्बन्ध है या नहीं इसका विचार करते हुए कहते हैं कि राग की ज्ञानावरण के साथ व्याप्ति तो है पर समव्यापित नहीं है किन्तु विषम व्याप्ति है - वह इस प्रकार कि जहाँ-जहाँ राग की सत्ता है वहाँ-वहाँ तो ज्ञानावरण की सत्ता है पर जहाँ-जहाँ ज्ञानावरण की सत्ता है वहाँ-वहाँ राग की सत्ता नहीं है। दसवें तक राय की सत्ता है सो ज्ञानावरण की भी सत्ता है किन्तु ग्यारहवें, बारहवें । में ज्ञानावरण की सत्ता तो है पर राग की सत्ता नहीं है। इससे समव्याप्ति सिद्ध न हुई किन्तु विषमव्याप्ति सिद्ध हुई।।
अन्तयव्यतिरेकाभ्यामेषा स्याद्विषमैव तु ।
न स्यात् समा तथा व्याप्तेहेतोरन्यतरादपि ॥ १६५६॥ अर्थ - रागादिकों की ज्ञानावरण के साथ अन्वय व्यतिरेक दोनों से विषम ही व्याप्ति है। तथा किसी अन्य कारण से भी इनकी व्याप्ति की समानता नहीं है अर्थात समव्याप्ति नहीं है।
व्याप्तेरसिद्धिः साध्यान साधन व्यभिचारिता ।
सैकरिमन्जवि सत्यन्यो न स्यात्स्यात्वा स्वहेतुतः ।। १६५७॥ अर्थ - यहाँव्याप्ति की असिद्धि साध्य है और व्यभिचारिपना साधन ( हेत है[अर्थात् यदिरागादि और ज्ञानावरण की समव्याप्ति मानी जाये तो व्यभिचार दोष आता है ] और वह व्यभिचारिपना इस प्रकार आता है कि एक के रहने पर दूसरा नहीं होता है और यदि होता भी है तो अपने कारण से होता है। [अर्थात् ज्ञानावरण के रहने पर रागादि भाव नहीं भी होते हैं और यदि होते भी हैं तो अपने कारण से होते हैं ।
भावार्थ - जहाँ-जहाँ ज्ञानावरण है - वहाँ-वहाँ राग भी होता तब तो समव्याप्ति बन जाती पर ग्यारहवें, बारहवें में ज्ञानावरण तो है पर राग नहीं है। यह जो व्यभिचार मिल गया - यह सिद्ध करता है कि ज्ञानावरण और राग की समव्याप्ति नहीं है अर्थात् ज्ञानावरण के कारण राग नहीं है तथा यह भी सिद्ध करता है कि दसवें तक जो राग है वह ज्ञानावरण के कारण से नहीं है किन्तु अपने कारण से है।
व्याप्तित्तं साहचर्यस्य नियमः स यथा मिथः ।
सति यन्त्र य:स्याटेव न स्यादेवासतीह यः ॥ १६५८ ॥ अर्थ – साहचर्य के नियम को व्याप्ति कहते हैं जैसे जिसके होने पर जो होता है और जिसके नहीं होने पर जो नहीं होता। यह व्याप्ति का नियम परस्पर में होता है। ___भावार्थ :-- इसमें समव्याप्ति का लक्षण बताया गया है कि समव्याप्ति किसे कहते हैं कि जिसके होने पर जो हो
और जिसके न होने पर जो न हो जैसे जहाँ-जहाँ ज्ञान दर्शन है वहाँ-वहाँ जीव है और जहाँ-जहाँ ज्ञान दर्शन नहीं है वहाँ-वहाँ जीव भी नहीं है। इसी प्रकार जहाँ-जहाँ जीव है वहाँ-वहाँ ज्ञानदर्शन है और जहाँ-जहाँ जीव नहीं है - वहाँवहाँ ज्ञानदर्शन भी नहीं है। इसको समव्याप्ति कहते हैं।
मा समा रागसद्भाते नूनं बन्धस्य सम्भवात् ।
रावगादीनामसदभावे बन्धरयासम्भवादपि ॥ १६५९॥ अर्थ - यहाँ(राग और ज्ञानावरण)की समव्याप्ति नहीं है क्योंकि राग के सदभाव में निश्चय से ज्ञानावरणादि का बन्थ है और रागादिक के असद्भाव में ज्ञानावरणादि का बन्ध नहीं होता है अर्थात् राग के सद्भाव में ज्ञानावरण तो है। इस प्रकार एक तरफ की तो व्याप्ति बैठती है किन्तु दूसरी ओर से विषम है -- वह इस प्रकार :
व्याप्तिः सा विषमा सत्सु संविटावरणादिषु ।
अभावादागभावस्य भावाद्वास्य स्वहेतुतः ।। १६६०॥ अर्थ- रागादिक की और ज्ञानावरणादि की वह विषम व्याप्ति इस प्रकार है कि ज्ञानावरणादि कर्मों के रहने पर भी राग भाव का अभाव पाया जाता है। यदि इस रागादि का सदभाव पाया भी जाता है तो इसके अपने कारणों से ही सद्भाव पाया जाता है [ज्ञानावरणादि के कारण से नहीं]।