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द्वितीय खण्ड / छठी पुस्तक
दैवादस्तंगते तत्र सम्यक्त्वं स्यादनन्तरम् I
दैवान्नान्यतरस्यापि योगवाही च नाप्ययम् ॥ १६३९ ॥
अर्थ - दैवयोग से उस दर्शनमोह के अनुदय ( क्षय, उपशम या क्षयोपशम ) होने पर सम्यक्त्व उसी समय उत्पन्न हो जाता है। दैवयोग से उसके अनुदय न होने पर अर्थात् उदय रहने पर दूसरा अर्थात् सम्यक्त्व भी नहीं होता है। यह उपयोग सम्यक्त्व या दर्शनमोह का योगवाही (निमित्त कारण) नहीं है।
भावार्थ - इसमें सम्यक्त्व के निमित्त कारण की चर्चा की है कि भाई सम्यक्त्व उत्पत्ति का उपयोग उपादान कारण तो नहीं है पर निमित्त कारण भी नहीं है। इसलिये उसका सम्यक्त्व से कुछ सम्बन्ध नहीं है। सम्यक्त्व का निमित्त कारण तो दर्शनमोह है। उसके साथ उसके होने या न होने की व्याप्ति है। उपयोग से नहीं।
सार्धं तेनोपयोगेन न स्याद् व्याप्तिर्द्वयोरपि ।
विना तेनापि सम्यवत्वं तदस्ते सति स्याद्यतः ॥ १६४० ॥
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अर्थ - उस उपयोग के साथ उन दोनों की ( सम्यक्त्व और दर्शनमोह के अनुदय की ) व्याप्ति भी नहीं है। क्योंकि उस उपयोग के बिना भी उस दर्शनमोह के अनुदय होने पर सम्यक्त्व हो जाता है।
अनुदय
भावार्थ - यहाँ शिष्य को यह समझाया है कि जीव का सबसे पहला लाभ सम्यक्च है और वह दर्शनमोह के के समय ही उत्पन्न हो जाता। उपयोग का न सम्यक्त्व की उत्पत्ति से कुछ सम्बन्ध है और न उस दर्शनमोह के अनुदय से ही कुछ सम्बन्ध है ।
सम्यक्त्वेनाविनाभूता येऽपि ते निरजरादयः ।
समं तेनोपयोगेन न व्याप्तास्ते मनागपि ॥ १६४१ ॥
अर्थ – सम्यक्त्व से अविनाभावी जो वे निर्जरा- आदिक हैं वे भी उस उपयोग के साथ जरा भी व्याप्तिरूप नहीं हैं
भावार्थ - गुणों में दूसरा गुण संवर निर्जरा का होना बतलाया था। मो अब उसकी चर्चा करते हुए कहते हैं कि संवर निर्जरा का अविनाभाव सम्बन्ध (समव्याप्ति) सम्यक्त्व के साथ है। उपयोग से उनका जरा भी सम्बन्ध नहीं है । सम्यग्दृष्टि का उपयोग चाहे स्व में हो या पर में हो पर सम्यक्त्व की शुद्धि के बल पर होने वाली संवर निर्जरा तो होती ही रहती है। उपयोग के पर में जाने से वे संवरनिर्जरादि नष्ट नहीं होते पर सम्यक्त्व के नष्ट होने पर नष्ट हो जाते हैं। इसलिये संवर निर्जरा के लाभ में भी उपयोग कारण नहीं है।
सत्यत्र
निर्जरादीनामवश्यम्भावलक्षणम् 1 सद्भावोऽस्ति नासद्भावो यत्स्थाद्वा नोपयोगी तत् ॥ १६४२ ॥
अर्थ - सम्यग्दर्शन के होने पर निर्जरादिक अवश्य ही होते हैं। सम्यग्दर्शन की उपस्थिति में निर्जरादिक का अभाव नहीं हो सकता है । परन्तु उस समय ज्ञान स्वोपयोगात्मक हो अथवा न हो कुछ नियम नहीं है अर्थात् शुद्धोपयोग हो या उपयोग पर में जा रहा हो - निर्जरादिक सम्यक्त्व के अविनाभावी हैं। उनमें उपयोग कारण नहीं है।
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आत्मन्येवोपयोग्यस्तु ज्ञानं वा स्यात् परात्मनि ।
सत्सु सम्यक्त्वभावेषु सन्ति ते निर्जरादयः || १६४३ ॥
अर्थ - ज्ञान चाहे आत्मा में उपयुक्त हो या पर में उपयुक्त हो किन्तु सम्यक्त्व भाव के होने पर वे निर्जरा- आदिक होते ही हैं।
भावार्थ - उपर्युक्त छः सूत्रों में जो कुछ कहा गया है उसका सार यही है कि ज्ञान चाहे निजात्मा ( शुद्धात्मानुभव) में उपयुक्त हो चाहे परपदार्थों में भी उपयुक्त हो वह गुण-दोषों में कारण नहीं है। ऊपर के सूत्रों में गुणों का कथन किया गया है। निर्जरादिक गुणों में जीव के सम्यग्दर्शनरूप परिणाम ही कारण है - स्वात्मोपयोग कारण नहीं है।
यत्पुनः श्रेयसो बन्धो बन्धश्चाश्रेयसोऽपि वा ।
रागाद्वा द्वेषतो मोहात् स स्यात् स्यान्नोपयोगसात् ॥ १६४ ॥
अर्थ और जो पुण्य बन्ध अथवा पाप बन्ध होता है वह राग से, द्वेष से मोह से होता है किन्तु उपयोग से नहीं
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होता है।