________________
४३०
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
और उसके फलस्वरूप महान् अतीन्द्रिय सुख रूप मोक्ष मिलेगा। अन्य सम्पदा तो नाशवान् है। वह तेरे कुछ काम नहीं आती। भाई, उनको आत्मा छूता भी नहीं। नीचे की पंक्ति में नास्ति से समझाते हैं कि यदि सम्यक्त्व रूप सच्ची सम्पदा नहीं है और शेष जगत् की सब सम्पदायें हैं। महान् अहमिन्द्र पद तक प्राप्त है तो रहो है जीव ! मिथ्यादर्शन रूपी महान् शत्र से तुझे कर्म बन्धता रहेगा और उस के फलस्वरूप नरक निगोद में चला जायेगा। यह सब सम्पदा यहीं पड़ी रह जायेगी। इसलिये भाई, इन सम्पदाओं की अभिलाषा छोड़। ये तो जीव को अनेक बार मिली। असली सम्यक्त्व रूपी सम्पदा का प्रयल कर, जिसके सामने ये सब हेच (हेय) हैं।
सम्यग्दर्शन से ज्ञान और चारित्र सम्यक हो जाते हैं और उनका गमन भी मोक्षमार्ग की ओर चल देता है अन्यथा ग्यारह अंग तक ज्ञान और महाव्रत तक चारित्रव्यर्थ है। केवल बन्ध करने वाला है।( देखिये इसी ग्रन्थ का नं. १५३७)। इसलिये संसार सागर से तरने के लिये सम्यग्दर्शन खेनटसमान रहा है।
दर्शनं ज्ञाजचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्को प्रचक्ष्यते ॥३१॥ विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोटयाः ।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥३२॥ भावार्थ - ज्ञान चारित्र से पहले सम्यग्दर्शन की ही साधना की जाती है क्योंकि वह मोक्षमार्ग में खेवटिया कहा गया है। ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति स्थिति वृद्धि और अतीन्द्रिय सुख रूपी फल सम्यक्त्व के अभाव में नहीं होते जैसे बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति स्थिति, वृद्धि और फल लगना नहीं होता। दंसण मूलो धम्मो। यहाँ सम्यग्दर्शन को बीजावत् कहा है और चारित्र को वृक्षवत् कहा है और अतीन्द्रिय सुख रूप मोक्ष उसका फल कहा है। अत: पहले सम्यग्दर्शन का पुरुषार्थ करना ही सर्वश्रेष्ठ है।
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो लिर्मोहो जैव मोहवान् ।
अनगारो गृहीभेयान निर्मोहो मोहिजो मुनेः ॥३३॥ अर्थ - सम्यग्दष्टि गृहस्थी मोक्ष की ओर जा रहा है किन्तु मिथ्यादृष्टि मुनि संसार (निगोद) की ओर जा रहा है। अत: उस मिथ्यादृष्टि मुनि से वह सम्यग्दृष्टि श्रेष्ठ है। इससे सम्बक्त्व का माहात्म्य प्रगट ही है। (४) प्रथम नरक विन घट्भू ज्योतिष, वान भवन षंढ नारी।
थावर विकलत्रय पशु में नाहिं, उपजत समकित्तधारी ॥ तीनलोक तिहुँ कालमाहिं, नहिं दर्शन सम-सुखकारी। सकलधरम को मूल यही, इस बिन करनी दुःखकारी ॥ मोक्षमहल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान चरित्रा ।
सम्यकता न लहै, सो दर्शन धारो भव्य पवित्रा ।। अर्थ - केवल एक सम्यग्दर्शन से कितना संसार कट जाता है गिने-मिने भवों में मोक्ष हो जाता है और तबतक नरक तिर्यञ्च नहीं होता। केवल देव और वहाँ से कुलीन सम्पत्तशाली मनुष्य होता है। यदि श्रेणिक की तरह मिथ्यात्व अवस्था में सातवें नरक तक की भी आयु बांधली हो तो कटकर अधिक से अधिक पहले नरक की प्रथम पाथड़े की ८४ हजार वर्ष रह जाती है। यदि पशुगति या मनुष्यगति बांध ली हो तो उत्तम भोगभूमि की हो जाती है और मोक्षमार्ग तो उसी समय से प्रारम्भ हो जाता है। वह वहाँ भी कर्मों की निखरा करके मोक्ष का ही पुरुषार्थ करता है।
श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है रयणाण महारयणं सव्वजोयाण उत्तम जोयं ।
सिद्धीण महारिद्धी सम्मत्तं सव्वसिद्रियरं ॥ ३२५11 अर्थ - सम्यक्त्व है सो रत्ननि विषय तो महास्न है। बहुरि सर्वयोग कहिये वस्तु की सिद्धि करने के उपाय मंत्रध्यान आदिकतिनि में उत्तम योग है जातें सम्यक्त्व के मोक्ष सधै है। बहुरि अणिमदिक ऋद्धि हैं तिनि में बड़ी ऋद्धि है। बहुत कहा कहिये सर्व सिद्धि करने वाला यह सम्यक्त्वही है। इसमें यह दिखाया है कि सम्यक्त्व से कोई बड़ी सम्पदा जगत् में नहीं है।