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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
प्रश्न २३७ - निर्विचिकित्सा अंग किसे कहते हैं? उत्तर- अपने को उत्तम गुणयुक्त समझकर अपने ताई श्रेष्ठ मानने से दूसरे के प्रति जो तिरस्कार करने की बुद्धि
उत्पन्न होती है उसे विचिकित्स्स या ग्लानि कहते हैं। इस दोष के चिन्ह ये हैं - जो कोई पुरुष पाप के उदय से दुःखी हो या असाता के उदय से ग्लान-शरीरयुक्त हो, उसमें ऐसी ग्लानिरूप बुद्धि करना कि"मैं सुन्दर रूपवान्, संपत्तिवान, बन्द्धिमान है. यह रंक-दीन, कुरूप मेरी बराबरी का नहीं" सम्यादृष्टि के ऐस भाव कदापि नहीं होते वह विचार करता है कि जीवों की शुभाशुभ कर्मों के उदय से अनेक प्रकार विचित्र दशा होती है। कदाचित् मेरा भी अशुभ उदय आजाय तो मेरी भी ऐसी दुर्दशाहोना कोई असम्भव
नहीं है। इसलिये वह दूसरों को हीन बुद्धि से या ग्लान-दृष्टि से नहीं देखता। प्रश्न २३८ - अमूढदृष्टि अंग किसे कहते हैं ? उत्तर - अतत्त्व में तत्व के श्रद्धान करने की बुद्धि को मूढदृष्टि कहते हैं। जिनके यह मूढदृष्टि नहीं है वे अमूवृष्टि
अंग युक्त सम्यग्दृष्टि है। इसके बाह्य चिन्ह यह है - मिथ्यादृष्टियों ने पूर्वापर विवेक बिना, गुण-दोष के विचार रहित, अनके पदार्थों को धर्मरूप वर्णन किये हैं और उनके पूजने से लौकिक और पारमार्थिक कार्यों की सिद्धि बतलाई है। अमूढदृष्टि का धारक इन सबको असत्य जानता और उनमें धर्मरूप बुद्धि नहीं करता तथा अनेक प्रकार की लौकिक मूढ़ताओं को निस्सार तथा खोटे फलों को उत्पादक जानकर व्यर्थ समझता है, कुदेव या अदेव में देवबुद्धि, कुगुरु या अगुरु में गुरुबुद्धि तथा इनके निमित्त हिंसा करने में धर्म मानना आदि मढष्टिपने को मिथ्यात्व समझदर ही से तजता है,यही सम्यक्ची का
अमूढष्टिपना है। सच्चे देव, गुरु, धर्म को ही स्वरूप पहचानकर मानता है। प्रश्न २३९ - उपबृंहण अंग किसे कहते हैं? उत्तर - अपनी तथा अन्य जीवों की सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र शक्ति का बढ़ाना, उपबृंहण अंग है। इसको उपगृहन
अंग भी कहते हैं। पवित्र जिनधर्म में अज्ञानता अथवा अशक्यता से उत्पन्न हई निन्दा को योग्य रीति से
दूर करना तथा अपने गुणों को वा दूसरे के दोषों को ढांकना सो उपगूहन अंग है। प्रश्न २४० - स्थितिकरण अंग किसे कहते हैं ? उत्तर - आप स्वयं या अन्य पुरुष किसी कषायवश जान, श्रद्धान, चारित्र से डिगते या छटते हों तो अपने को
वा उन्हें दूढ़ तथा स्थिर करना- ये स्थितिकरण अंग है। प्रश्न २४१ - वात्सल्य अंग किसे कहते हैं ? उत्तर - अरहन्त, सिद्ध, उनके बिम्ब, चैत्यालय, चतुर्विध संघ तथा शास्त्रों में अन्तःकरण से अनुराग करना, भक्ति
सेवा करना सो वात्सल्य है। यह वात्सल्य वैसा ही होना चाहिये जैसे स्वामी में सेवक की अनुरागपूर्वक भक्ति होती है या गाय का बछड़े में उत्कट अनुराग होता है। यदि इन पर किसी प्रकार के उपसर्ग या संकट
आदि आवें तो अपनी शक्ति भर मेटने का यत्न करना चाहिये, शक्ति नहीं छिपाना चाहिये। प्रश्न २४२ - प्रभावना अंग किसे कहते हैं? उत्तर - जिस तरह से बन सके, उस तरह से अज्ञान अन्धकार को दूर करके जिन शासन के माहात्म्य को प्रगट
करना प्रभावना है अथवा अपने आत्मगुणों को उद्योत करना अर्थात् रत्नत्रय के तेज से अपनी आत्मा का प्रभाव बढ़ाना और पवित्र मोक्षदायक जिनधर्म को दान-तप-विद्या आदि का अतिशय प्रगट करके तन, मन, धन, द्वारा(जैसी अपनी योग्यता हो) सर्वलोक में प्रकाशित करना सो प्रभावना है।
सम्यग्दर्शन से लाभ (१) सम्यग्दर्शन से - आगामी कर्मों का आस्रव बन्ध रूक जाता है। (२) सम्यग्दर्शन से - पहले बन्धे हुए कर्मों की निर्जरा होती है।