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________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक इतरत्पागिह ख्यात गुणो दृष्टिमतः स्फुटम् । शब्दज्ञानबलादेव यतो वाधापकर्षणम ||१५७६॥ सूत्रार्थ - दूसरा वात्सल्य इस ग्रन्थ में पहले कहा गया है। वह भी सम्यग्दृष्टि का प्रगट गुण है क्योंकि शुद्ध ज्ञान के बल से ही बाधा दूर की जा सकती है। भावार्थ - अपने रत्नत्रय में इतनी प्रीति होना कि उसके लिये हर प्रकार के कष्ट और आपत्ति को खुशी से सहना यह स्व वात्सल्य है। देव-शास्त्र-गुरु की इतनी प्रीति होना कि उनके उपसर्गों को तन, मन, धन, जन्त्र, मन्त्र, तलवार इत्यादिक के द्वारा किसी प्रकार से दूर करने के लिये अपनी पर्याय के नाश तक की परवाह न करना परवात्सल्य है और जो सम्यग्दृष्टि विशेष ज्ञान के क्षयोपशम काधारी होता है वह तो अपने ज्ञानोपदेश रूपी अमृत से ही उनके उपसर्गों को दूर करा देता है। निश्चय से वह जानता है कि कोई किसी की बाधा दूर नहीं कर सकता फिर भी उसको अपनी भूमि के अनुसार दूर करने का विकल्प आये बिना नहीं रहता ऐसा ही वस्तु स्वभाव है। श्रीसमयसारजी में कहा है जो कुणदि वच्छलतं तियेह साहुण मोचमग्गम्मि । सो वच्छलभावजुटो सम्मादिट्ठी मुणेयरवो ।। २३५ ॥ सत्रार्थ - जो चेतयिता मोक्षमार्ग में स्थित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी तीन साधकों(साधनों के प्रति वात्सल्य करता है वह वात्सल्यभाव से युक्त सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। भाव यह है कि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एकज्ञायक भावमयता के कारण, सम्यग्दर्शन-जान-चारित्र को अपने से अभेदबुद्धि से सम्यक्तया देखता ( अनुभवन करता) है, इसलिये मार्गवत्सल अर्थात् मोक्षमार्ग के प्रति अति प्रीति वाला है। श्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा है अनवरतमहिंसायां शिवसुरवलक्ष्मीनिबन्धने धमें । सर्वेष्वपि च सधर्मिषु परमं वात्सल्यमालम्ब्यम् ॥ २९॥ सुत्रार्थ - मोक्ष सुख की सम्पदा के कारणभूत अहिंसामयी धर्म में और सब साधर्मियों में निरन्तर उत्कृष्ट प्रीति रखना चाहिये। श्री रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है स्वथ्यान्प्रतिसदभावसनाथापेलकैतवा । प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥ १७॥ सूत्रार्थ - अपने साधर्मियों के प्रति छलकपदरहित सद्भाव युक्त यथायोग्य आदर-सत्कार वात्सल्य कहा जाता है। श्री अमितगतिश्रावकाचार में कहा है करोति संघे बहुधोपसर्गे - रुपढ़ते धर्मधियाऽनपेक्षः । चतुर्विधे व्यापृतिमुज्ज्वला यो. वात्सल्यकारी स मलः सुदृष्टि ॥७९॥ सूत्रार्थ - मुनि आर्यिका श्रावक-श्राविका ऐसे च्यार प्रकार संघकौं बहुत प्रकार उपसर्गकरि पीडित भये संते जो वांछारहितधर्मबद्धिकरि निर्मल वैयावृत्याचार कर है सो सम्यग्दष्टि वात्सल्य करनेवाला कहा है अर्थात जिनधमीनविर्षे वा आत्मस्वरूपविर्ष अति प्रीति करना सो वात्सल्य अंग जानना। बारहवाँ अवान्तर अधिकार __ प्रभावना अंग का वर्णन सूत्र १५७७ से १५८५ तक ९ प्रभावनाङ्गसंज्ञोऽस्ति गुणः सद्दर्शनस्य वै । उत्कर्षकरणं नाम लक्षणादपि लक्षितम् ॥ १५७७ ।। सुत्रार्थ - प्रभावना नामक अंग भी निश्चय से सम्यग्दर्शन का गण है जो धर्म का) उत्कर्ष (बढ़ाव)करने रूप लक्षण से लक्षित है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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