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________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक 1 मुनि धर्म सूत्र १५१९ से १५१३ तक ३ । नात्राप्यन्यतमेनोना नातिरिक्ताः कदाचन ॥ १५११ ॥ सूत्रार्थं यति के मूलगुण अदाईस होते हैं जैसे वृक्ष का मूल उनमें कभी भी किसी एक से कम या किसी एक से अधिक नहीं होते अर्थात् किसी में २७ या २९ नहीं होते। - यतेर्मूलगुणाश्चाष्टाविंशतिर्मूलवत्तरोः भावार्थ एक मूल धर्म होता है एक उत्तर धर्म होता है जैसे श्रावक तीन मकार का और पाँच पापों का मोटे रूप से त्याग मूलधर्म है अर्थात् पाँच अणुव्रत मूल धर्म है । ३ गुण व्रत तथा ४ शिक्षव्रत उत्तर गुण हैं। मूल गुण के अभाव में भावक नहीं हो सकता किन्तु उत्तर गुणों की हीनाधिकता से श्रावकपना नहीं जाता ( श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचार ) उसी प्रकार २८ मूलगुण मुनि का मूल धर्म है। इनके बिना तो मुनि होता ही नहीं ८४ लाख उत्तर गुण हैं। उनकी हीनाधिकता से मुनिपना रह सकता है। जैसे मूल के बिना वृक्ष नहीं टिक सकता। डाली पत्ते की हीनाधिकता से वृक्ष रह सकता है। ४०३ सर्वैरेभिः समस्तैश्च सिद्धं यावन्मुनिवतम् । न व्यस्तैर्व्यस्तमात्रं तु यावदंशनयादपि ॥ १५१२ ॥ सूत्रार्थं - जो कुछ मुनिव्रत है वह इन सब समस्तों के द्वारा सिद्ध है। व्यस्तों (अधूरों-कमों) से नहीं। व्यस्तों से किसी एक अंश नय से अंश मात्र भी मुनि व्रत नहीं है। - भावार्थ - जिस प्रकार श्रावकों का पूरा धर्म सम्यक्त्व सहित ११ प्रतिमा है जैसे प्रतिमाओं के अनुसार हीनाधिक श्रावक धर्म होता है, उसप्रकार मुनिधर्म के २८ मूलगुणों के एक देशपालन से या कुछ के पालन से थोड़ा मुनिधर्म हो जाता हो, ऐसा विधान नहीं है। मुनिधर्म में हीनाधिकता नहीं है। सब के सब में २८ गुण ही होते हैं। कम ज्यादा नहीं होते । हाँ ८४ लाख उत्तर गुणों में हीनाधिकता हो सकती है। ये व्यवहार धर्म की मुख्यता से कथन है। संज्वलन कषाय में हीनाधिकता हो सकती है इसका वर्णन पहले कर आये हैं। वे २८ मूल गुण ये हैं। श्री प्रवचनसार में कहा है वदसमिद्विंदियरोधो लोचो आवस्रायमचेलमण्हाणं रिखदिरायणमदं तमणं ठिद्विभोयणमेयभत्तं च ॥ २०८ ॥ सूत्रार्थं व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, लोच', आवश्यक', अचेलपना', अस्नान', क्षितिशयन', अदंतधावन', खड़ा खड़ा भोजन, और एकवक्त आहार' । कुल २८ । एते भूलगुणाः प्रोक्ताः यतीनां जैनशासने । लक्षाणां चतुरशीतिर्गुणाश्चोत्तरसंज्ञकाः ॥ १५१३ ॥ सूत्रार्थं जैन शासन में यतियों के ये मूलगुण कहे गये हैं। चौरासी लाख उत्तर नाम वाले गुण कहे गये हैं। मुनिधर्म समाप्त धर्म उपसंहार वाडनगारो वा यथोदितः । ततः सागारधर्मो प्राणिसंरक्षणं मूलमुभयत्राविशेषतः ॥ १५१४ ॥ सूत्रार्थ - इसलिये यथोक्त जो सागार धर्म अथवा अनगार धर्म है उन दोनों में ही सामान्यरूप से प्राणियों की भले प्रकार रक्षा मूल रूप है। भावार्थ धर्म का सामान्य लक्षण प्राणीरक्षा अर्थात् अहिंसा है शुद्धभाव प्रगट करके स्वअहिंसा अर्थात् अपने आपको रागद्वेष मोहरूप भाव हिंसा से रक्षा करना निश्चय धर्म है तथा अपने व दूसरे प्राणी के १० प्राणों की रक्षा का विकल्प व्यवहार धर्म है। यही मुनि व श्रावक धर्म का सार है। व्यवहार धर्म का निरूपण समाप्त हुआ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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