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________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक अस्ति सद्दर्शनस्यासौ गुणो निर्विचिकित्सकः । यतो अवश्यं स तत्रास्ति तस्मादन्यत्र न क्वचित् ॥ १३५३ ॥ सूत्रार्थ - सम्यग्दर्शन का वह निर्विचिकित्सक गुण है क्योंकि सम्यग्दर्शन के होने पर वह अवश्य होता है और उसके अतिरिक्त कहीं पर भी नहीं होता है । कर्मपर्यायत्मात्रेषु रागिणः स कुतो गुणः । सद्विशेषेऽपि समोहाद् द्वयोरैक्योपलब्धित्तः ॥ १३५४ ॥ सूत्रार्थ - कर्म के उदय से होनेवाली पर्याय मात्र में राग करने वाले के वह गुण कैसे हो सकता है। सत् भिन्नभिन्न होने पर भी गाढ़ मोह से उन दोनों में ऐक्य समझता है। ३८१ इत्युक्तो युक्तिपूर्वोऽसौ गुणः सद्दर्शनस्य यः । नाविवक्षो हि दोषाय विवक्षो न गुणाप्तये ॥ १३५५ ।। सूत्रार्थ - इस प्रकार जो युक्ति पूर्वक कहा गया है वह सम्यग्दर्शन का गुण है। वह यदि न कहा जाय तो दोष के लिये नहीं है और कहा जाये तो सम्यग्दर्शन में किसी प्रकार की विशेषता को लाने के लिये भी कारण नहीं है। भावार्थ- सम्यग्दर्शन का और इन गुणों का अविनाभाव संबंध है। सम्यग्दृष्टि में यह गुण स्वतः स्वभाव से उत्पन्न होता ही है। इसलिये कहो तो कोई लाभ नहीं और न कहो तो कोई हानि नहीं पर यह होता अवश्य है। सार विचिकित्सा ग्लानि को कहते हैं और निर्विचिकित्सा ग्लानि रहितपने को कहते हैं। मिध्यादृष्टियों की संयोगी दृष्टि है । वे दैवयोग से अपने में इष्टसंयोगों की बहुलता होने पर और दूसरे में अनिष्टसंयोगों की बहुलता होने पर और दूसरे में अनिष्टयोगों की बहुलता होने पर उससे घृणा करते हैं किन्तु सम्यग्दृष्टि तो जानता है कि कर्मरहित वस्तु तो सामान्य आत्मा है। वह सबकी एक बराबर है। उसके अतिरिक्त जो कुछ है वह कर्मकृत वस्तु है । हैय है। कम हुई तो क्या अधिक हुईं तो क्या । अतः उसे दूसरे के प्रति घृणा का भाव नहीं आता। - अब इस अंग के कुछ आगम प्रमाण देते हैं:श्रीसमयसार में कहा है जो ण करेद जुगुप्पं चेदा सव्वेसिमेत धम्माणं । सो - प्रमाण T खलु पिंविदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ॥ २३१ ॥ सूत्रार्थ जो चेतयिता सभी धर्मो ( वस्तु के स्वभावों) के प्रति जुगुप्सा ( ग्लानि ) नहीं करता उसको निश्चय से निर्विचिकित्स (विचिकित्सा दोष से रहित ) सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। भाव यह है कि सम्यग्दृष्टि टैकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयता के कारण, सभी वस्तु धर्मों के प्रति जुगुप्सा का अभाव होने से, निर्विचिकित्स (जुगुप्सारहितग्लानिरहित ) है | श्रीपुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा है क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु । द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा जैव करणीया ॥ २५ ॥ सूत्रार्थं भूख प्यास, शीत, उष्ण आदि नाना प्रकार के भावों में और विष्टा आदिक पदार्थों में ग्लानि नहीं करना चाहिये । पाप के उदय से दुःखदायक भावों का संयोग होने पर उद्वेग रूप न होना क्योंकि उद्याधीन कार्य अपने बस का नहीं तथा विष्टादि पदार्थों में ग्लानि न करना क्योंकि उस वस्तु का स्वभाव ऐसा ही है । - श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कार्य रत्नत्रयपवित्रिते । स्वभावतोऽशुचौ निर्जुगुप्सागुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ॥ १३ ॥ सूत्रार्थं स्वभाव से अपवित्र किन्तु रत्नत्रय से पवित्र मुनियों के शरीर से ग्लानि नहीं करना किन्तु उनके गुणों से प्रीति करना निर्विचिकित्सा अंग माना गया है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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