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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
सार - सार यह है कि पर्याय दृष्टि वाले मिथ्यादष्टि के अरक्षाभय अवश्यंभावी है क्योंकि पर्याय तो नाशवान है। उसकी रक्षा हो ही नहीं सकती और बह रक्षा करना चाहता है। सम्यग्दष्टि के अरक्षा भय नहीं है क्योंकि उसकी सामान्य दृष्टि है। सामान्यस्वभाव स्वत: रक्षित है। उसका कभी नाश ही नहीं। मिथ्यादष्टि पर्याय के नाश से सर्वस्व अपना मूल से ही नाश मानता है। उसकी दृष्टि में द्रव्य, पर्याय जितना ही है। प्रमाण - यह अत्राण भय कलश नं. १५७ का है जो इस प्रकार है -
अरक्षा से निर्भयपना यत्सन्नाशमुपैति तन्न नियतं व्यक्तेति वस्तुस्थिति - झानं सत्स्वयमेव तत्तिल ततस्त्रातुं किमस्यापरैः । अस्यात्राणमतो न किंचन भवेत्तीः कुतो ज्ञानिनो ।
निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सटा विंदति ।। १५७ ।। कलशार्थ - जो सत् है वह नष्ट नहीं होता ऐसी वस्तुस्थिति नियमरूप से प्रगट है। यह ज्ञान भी स्वमेव सत् ( सत् स्वरूप वस्तु) है (इसलिये नाश को प्राप्त नहीं होता), इसलिये पर के द्वारा उसका रक्षण कैसा? इस प्रकार (ज्ञान निज से ही रक्षित है इसलिये ) उसका किंचित् मात्र भी अरक्षण नहीं हो सकता, इसलिये ( ऐसा जानने वाले ) ज्ञानी को अरक्षा का भय कहाँ से हो सकता है ? वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञान का सदा अनुभव करता है। ____ भावार्थ - सत्ता स्वरूप वस्तु का कभी नाश नहीं होता। ज्ञान भी स्वयंसत्ता स्वरूप वस्तु है। इसलिये वह ऐसा नहीं है जिसकी दसरों के द्वारा रक्षा की जाये तो रहे, अन्यथा नष्ट हो जाया ज्ञानी ऐसा जानता है, इसलये उसे अरक्षा का भय नहीं होता, वह तो नि:शंक यतता हुआ स्वयं अपने स्वाभाविक ज्ञान का सक्ष अनुभव करता है।
अगुप्ति भय सूत्र १३०४ से १३०६ तक ३ दमोहरयोदयाद बद्धिः यस्य चैकान्तवादिनी
तस्यैवागुप्तिभीतिस्यान्लूज नान्यस्य जानुचित् ॥ १३०४।। सूत्रार्थ - 'दर्शनमोह के उदय में जुड़ने से जिसकी बुद्धि एकान्तवाद के अनुसार श्रद्धान रखने वाली है, उसके ही अगुप्ति भय होता है। निश्चय से दूसरे ( सम्यग्दृष्टि ) के कभी भी नहीं होता है।
असज्जन्म सतो नाशं मन्यमानस्य देहिनः ।
कोऽतकाशस्ततो मुक्तिमिच्छतोऽगुप्तिसाध्वसात् ।। १३०५ ॥ सूत्रार्थ - असत् पदार्थ के जन्म को और सत् पदार्थ के नाश को मानने वाले देहधारी के ( मिथ्यावृष्टि के) अगुप्तिभय से छुटकारा चाहते हुए के भी उस अगुप्ति भय से छूटने का क्या अवकाश ?
सम्यग्दृष्टिस्तु स्वरूयं गुप्तं वै तरतुनो विदन् ।
निर्भयोऽगुप्तितो भीते: भीतिहेतोरसम्भवात् || १३०६ ॥ सूत्रार्थ - सम्यग्दृष्टि तो निश्चय से वस्तु के स्वरूप को सदैव गुप्त मानता हुआ अगुप्ति भय से निर्भीक होता है क्योंकि उसके भय के कारण की असंभवता है। ___ भावार्थ - सामान्य स्वभाव त्रिकाल गुप्त है। उसका कभी नाश नहीं। अतः सम्यग्दृष्टि अगुपित भय से रहित है और पर्याय तो प्रगट अगुप्त है। अतः मिथ्यादृष्टि को यह भय बना ही रहता है। प्रमाण - यह अगुप्ति भय कलश नं. १५८ का है। जो इस प्रकार है:
अगुप्ति से निर्भयपना स्तं रूपं किल वरतुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूपे न य-। च्छक्तः कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूयं चनुः ॥ अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेत्तदभीः कुतो ज्ञानिनो ।
निरशंकः सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विंदति ॥ १५८॥ कलशार्थ - वास्तव में वस्तु का स्वरूप ही (निजरूप ही) वस्तु की परम 'गुप्ति' है, क्योंकि स्वरूप में कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता; और अकृत्तज्ञान ( जो किसी के द्वारा नहीं किया गया ऐसा स्वाभाविक ज्ञान ) पुरुष का अर्थात्