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________________ ३३० ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी नाम के गुण की पूर्ण प्रकटता अनन्त सुख संवेदन है यदि उसका अभाव मानोगे तो आत्मा महान् दुःखी हो जायेगा। फिर कैसा मोक्ष। सो कहते हैं न स्यानिजगणव्यक्तिरात्मनो दारवसाधनम | सुखस्य मूलतो नाशादतिदुःरवानुषंगतः ॥ ११३७ ।। अर्थ-आत्मा के निजगुण की प्रकटता दुःख का साधन नहीं है क्योंकि सुख के मूल से नाश हो जाने से अत्यन्त दुःख का प्रसंग आता है। निश्चितं ज्ञानरूपस्य सुरवरूपस्य वा पुनः । देहेन्द्रियैर्विनापि स्तो ज्ञानानन्दौ परात्मनः ॥ ११३८ ।। अर्थ-इसलिये यह सिद्ध हो गया कि जानरूप और सखरूप सिद्ध के देह-इन्द्रिय ( और विषयों निश्चित रूप से ज्ञान और आनन्द है। प्रमाण-सिद्ध के अतीन्द्रिय ज्ञान का विशद विवेचन श्रीप्रवचनसार नं.२१ से५२ तक खास इसी का अधिकार है तथा अतीन्द्रिय सुख का वर्णन ५३ से ६८ कर खास इसी का अधिकार है। वैसा अन्यत्र कहीं नहीं है बल्कि है ही नहीं । वह बांचने से ममुक्ष की विषय सुख की अभिलाषा काफूर की तरह नष्ट हो जाती है और अतीन्द्रिय सुख की श्रद्धा जम जाती है । - ग्रन्थकार ने १११३ से ११३८ तम का वार श्रीवासितका २७ तथा श्रीप्रवचनसार नं. ६८ पर से लिया है। वह इस प्रकार है-- सयमेव जहादिच्चो तेजो उपहो य देवदा गभसि । सिद्धो ति तहा णाणं सह च लोगे तहो देवो ॥ ६८ अर्थ-जैसे आकाश में सूर्य अपने आप ही तेज उष्ण और देव है उसी प्रकार लोक में सिद्ध भगवान भी (स्वयमे भगवान् भी (स्वयमेव) ज्ञान सुख और देव हैं। टीका-जैसे आकाश में अन्य कारण की अपेक्षा रखे बिना ही सूर्य (१)स्वयमेव अत्यधिक प्रभा समूह से चमकते हए स्वरूप के द्वारा विकसित प्रकाश युक्त होने से तेज है(२)कभी उतारूप परिणमित लोहे के गोले की भांति सदा उष्णता परिणाम को प्राप्त होने से उष्ण है और (३) देवगति नाम कर्म के धारावाहिक उदय के वशवी स्वभाव से देव है, इसी प्रकार लोक में अन्य कारण की अपेक्षा रखे बिना ही भगवान आत्मा स्वयमेव ही(१) स्वपर को प्रकाशित करने में समर्थ यथार्थ अनन्तशक्तियुक्त सहज संवेदन के साथ तादात्म्य होने से ज्ञान है (२) आत्मतृप्ति से उत्पन्न होने वाली जो परिनिर्वृत्ति है उससे प्रवर्तमान अनाकुलता में सुस्थितता के कारण सौख्य है और ( ३) जिन्हें आत्मतत्त्व की उपलब्धि निकट है ऐसे बुधजनों के मनरूपी शिलास्ताभ में जिसकी अतिशय ध्रुति स्तुति उत्कीर्ण है ऐसा दिव्य आत्मस्वरूपवान् होने से देव है । इसलिए इस आत्मा को सुख साधनाभास के विषयों से बस हो। भावार्थ-सिद्ध भगवान किसी बाह्य कारण की अपेक्षा के बिना अपने आप ही स्वपर प्रकाशक ज्ञानरूप हैं, अनन्त आत्मिक आनन्दरूप हैं और अचिन्त्य दिव्यता रूप हैं। सिद्ध भगवान की भाँति ही सर्व जीवों का स्वभाव है; इसलिये सुखार्थी जीवों को विषयालम्बी भाव छोड़ कर निरालम्बी परमानन्द स्वभाव रूप परिणमन करना चाहिए। सिद्धों के अतीन्द्रिय सुख और अतीन्द्रिय ज्ञान अर्थात् अपने आत्मा के स्वाभाविक सुख और ज्ञान की सिद्धि समाप्त। इस अवान्तर अधिकार का साररूप उपसंहार सूत्र ११३९ से ११४२ तक ४ इत्येवं ज्ञाततत्त्वोऽसौ सम्यग्दृष्टिनिजात्मदृक् ।। वैषयिके सुरवे ज्ञाने रागद्वेषौ परित्यजेत् ॥ ११३९ ॥ अर्थ-इस प्रकार जान लिया है तत्त्व को जिसने (अर्थात् ऐन्द्रिय सुख और ऐन्द्रिय ज्ञान हेय है ऐसा जिसका निर्णयात्मक ज्ञान है और अपनी आत्मा को देखने वाला ( अर्थात् अतीन्द्रिय सुख और अतीन्द्रिय ज्ञान मेरी आत्मा का स्वभाव है। ऐसा श्रद्धान रखने वाला) वह सम्यग्दृष्टि इन्द्रियजन्य सुख में और इन्द्रियजन्य ज्ञान में राग-द्वेष को छोड़ देता है अर्थात् उन्हें अपना स्वभाव नहीं मानता और उनका ज्ञाता द्रष्टा हो जाता है। अर्थात् कर्मचेतना और कर्मफल
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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