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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ-आचार्य कहते है कि आगम में तथा लोक में यह कहने में आता है कि ज्ञानी विषयों को हेय जानकर छोड़ता है। वास्तव में सम्यग्दृष्टि का ज्ञानचेतना रूप जो परिणमन हो गया है उस परिणमन का ही कुछ ऐसा कमाल है कि उसके रहते सन्ते विषयों की अभिलाषा ही जागृत नहीं होती । यह वास्तविक कारण है। हेय ज्ञान कर छोड़ना तो मात्र कहने की बात है।
सिद्धमस्ताभिलाषचं कस्यचित्सर्वतश्चितः ।
देशतोऽप्यस्मदाटीना रागाभावस्य दर्शनान् ॥ १०३१॥ अर्थ-किसी आत्मा के विषयों में) सर्वथा अभिलाषपने का अभाव सिद्ध है क्योंकि हम लोगों के भी आंशिक रूप से राग ( चपक ) का अभाव देखने में आता है ( इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थकार स्वयं ज्ञानी थे)। ___ भावार्थ-आर्यसमाज इत्यादि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि किसी के विषय अभिलाषा का अभाव होता ही नहीं। ग्रन्थकार कहते हैं कि हम ज्ञानी हैं। हमें अपने अनुभव से प्रत्यक्ष अपने में एक देश विषय सुख की अभिलाषा का अभाव अनुभव में आ रहा है तो इसकी अविनाभाव व्याप्ति से यह सिद्ध है कि बड़े ज्ञानियों के विषय अभिलाषा का सर्वथा अभाव भी हो जाता है। विषय अभिलाषा काही दसरा नाम रागभाव श्रीसमयसारजी में कहा है। यहाँ प्रत्यक्ष अनुभव प्रमाण से सिद्ध किया है। जिनका यह कहना है कि अपने सम्यक्त्व का भी अपने को पता नहीं चलता दे इस सत्र का अर्थ कैसे सिद्ध करेंगे?
तद्यथा न मदीयं स्यादन्यदीयमिटं ततः ।
परप्रकरणे कश्चितृप्यन्नपि न तृप्यति ॥ १०३२ ।। अर्थ-वह इस प्रकार कि- यह मेरा नहीं है दसरे का है। इसलिये पर प्रकरण में कोई तप्त होता हवा भीतप्त नहीं होता है। (इसी प्रकार ज्ञानी विषयों को आत्मस्वभाव नहीं मानता इसलिये उनसे तन्मय नहीं होता)।
भावार्थ--आचार्य महाराज उपयुस बात कोसिद्ध करने के लिये दहान्त देश है कि एक शाह काखजांची है। लाखों 1 रुपया लेता है किन्तु ''यह सेठ का है मेरा नहीं है" इस श्रद्धा के कारण उस रुपये से उसकी कुछ तृप्ति नहीं होती। इसी प्रकार किसी-किसी सम्यग्दृष्टि के साता के उदय से सब विषय-सुख प्राप्त हो जाते हैं पर वह जानता है कि यह परकृतवस्तु है, पराधीन है, क्षणिक है, बाधासहित है, बन्ध की कारण है, विषम है। अत: वह उससे तृप्त नहीं होता । किन्तु अपने आत्मिक सुख से ही तृप्त होता है ( श्रीसमयसार गा. १९७)।
__ यथा कश्चित्परायतः कुर्वाणोऽनुचिता क्रिया ।
कर्ता तस्याः क्रियायाश्च न स्यादस्ताभिलाषवान || १०३३॥ अर्थ-जैसे कोई पराधीन (पुरुष) अनुचित क्रिया को करता हुवा भी उस क्रिया का कर्ता नहीं होता क्योंकि उनमें उसकी इच्छा नहीं है।
भावार्थ-यहाँ शिष्य पूछता है कि महाराज जब सम्यग्दृष्टि के विषय सुख में अभिलाषा नहीं है तो भोगता क्यों है? तो आचार्य समझाते हैं कि जिस प्रकार बन्दी खाने में कैदी को न चाहते हुवे भी बहुत-सी क्रियायें करनी पड़ती हैं उसी प्रकार ज्ञानी चाहता तो नहीं पर पुरुषार्थ की निर्बलता के कारण तथा नीची भूमिका होने के कारण वह कमज क्रिया हो जाती है या यूं भी कह सकते हैं कि ज्ञानी को करनी पड़ जाती है पर उस किया में उसकी इच्छा और रुचि न होने के कारण वह उसका को भोगता नहीं होता ।
शङ्का स्वरले जनु सदृष्टिरिन्द्रियार्थकदम्बकम् ।
तष्टं रोचते तरमै कथमरताभिलाषवान ॥ १०३४॥ शंका-सम्यग्दृष्टि इन्द्रियों के विषयसमूह को भोगता है और उन विषयों में उसके लिये इष्ट रुचता भी है फिर वह चाहरहित कैसे हैं ?
भावार्थ--इतना समझाने पर भी शिष्य की संतुष्टि नहीं हुवी । वह वेग में आकर कहता है कि महाराज तीर्थकर से बड़ा तो कोई ज्ञानी नहीं होता। क्षायिक सम्यग्दृष्टि और किसी-किसी सम्यग्दृष्टि ने ९६ हजार स्त्रियों तक से लान