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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
दौड़ते हुवे दिखाई देते हैं उसीप्रकार दुर्निवार इन्द्रियवेदना के वशीभूत होते हुए वे लोग वास्तव में, जोकि विषयों का नाश अतिनिकट है ( अर्थात् विषय क्षणिक है) तो भी विषयों की ओर दौड़ते दिखाई देते हैं। और यदि "उनका दुःख स्वाभाविक है ऐसा स्वीकार न किया जाय तो जैसे-जिसका शीतचर उपशान्त हो गया है, वह पसीना आने के लिये उपचार करता तथा जिसका दाह्य वर उतर गया है वह वदाचूर्ण (शंख इत्यादि का चूर्ण) आँजता तथा जिसका कर्णशल नष्ट हो गया है वह कान में फिर बकरे का मत्र डालता और जिसका घाव भर जाता है वह फिर लेप करता दिखाई नहीं देता-इसी प्रकार उनके विषय व्यापार देखने में नहीं आना चाहिये किन्तु उनके वह (विषय प्रवृत्ति ) तो देखी जाती है। इससे (सिद्ध हुबा कि ) जिनके इन्द्रियाँ जीवित हैं ऐसे परोक्षज्ञानियों के दुःख स्वाभाविक ही हैं।
भावार्थ-परोक्षज्ञानियों के स्वभाव से ही दःख है क्योंकि उनके विषयों में रति वर्तती है। कभी-कभी तो वे असा तृष्णा की दाह से (तीव्र इच्छा रूपी दुःख के कारण ) मरने तक की परवाह न करके क्षणिक इन्द्रिय विषयों में कूद पड़ते हैं। यदि उन्हें स्वभाव से ही दुःख न हो तो विषयों में रति ही न होनी चाहिये। जिसके शरीर का दाह-दुःख नष्ट हो गया हो वह बाह्य शीतोपचार में रति क्यों करेगा? इससे सिद्ध हवा कि परोक्ष ज्ञानियों के दुःख स्वाभाविक ही हैं। तथा
ते पुण उटिण्णतण्हा दुहिदा तण्डाहिं विसयसोक्रव्याणि ।
इच्छति अणुभवंति य आमरणं दुरवसंतत्ता || ७५ ॥ अर्थ-और जिनकी तृष्णा उदित है ऐसे वे जीव तृष्णाओं के द्वारा दुखी होते हुए मरण पर्यन्त विषय सुखों को चाहते हैं और दुखों से संतप्त होते हुए ( दुःख दाह को सहन न करते हुए) उन्हें भोगते हैं।
टीका-जिनके तृष्णा उदित है ऐसे देवपर्यन्त समस्त संसारी, तृष्णा दुःख का बीज होने से पुण्यजनित तृष्णाओं के द्वारा भी अत्यन्त दुःखी होते हुए मृगतृष्णा में से * जल की भांति विषयों में से सुख चाहते हैं, और उस दुःख-संताप के वेग को सहन न कर सकने से जोंक की भांति विषयों को तब तक भोगते हैं जब तक कि मरण को प्राप्त नहीं होते। जैसे जोंक (गोंच ) तृष्ण जिसका बीज है ऐसे विषय को प्राप्त होती हुई दुःखांकुर से क्रमश: आकान्त होने से दूषित रक्त को चाहती और उसी को भोगती हुई मरणपर्यन्त क्लेश को पाती है, उसी प्रकार यह पुण्यशाली जीव भी पापशाली जीवों की भांति तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विषय प्राप्त दुःखांकरों के द्वारा क्रमशः आक्रांत होने से विषयों को चाहते हुए और उन्हीं को भोगते हुए विनाश पर्यन्त (मरणपर्यन्त ) क्लेश पाते हैं। इससे पुण्य सुखाभासरूप दुः ख का ही साधन है। __ भावार्थ-जिन्हें समस्त विकल्पजालरहित परमसमाधि से उत्पन्न सुखामतरूप सवं आत्म प्रदेशों में परम आहादभूतस्वरूप तृप्ति नहीं बर्तती, ऐसे समस्त संसारी जीवों के निरन्तर विषयतृष्णा व्यक्तरूप से या अव्यक्तरूप से अवश्य वर्तती हैं। वे तृष्णारूपी बीज क्रमश: अंकुररूप होकर दुःखवृक्षरूप से वृद्धि को प्राप्त होकर इस प्रकार दुः खदाह का वेग असा होने पर वे जीव विषयों में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए जिनकी विषयों में प्रवृत्ति देखी जाती है ऐसे देवों तक के समस्त संसारी जीव दुःखी ही हैं। इस प्रकार दुःख भाव ही पुण्यों का-पुण्यजनित सामग्री का आलम्बन करता है इसलिए पुण्य सुखाभासभूत दुःख का ही अवलम्बन साधन है। ___ अगली भूमिका-इस प्रकार जो विषय सुख का स्वरूप दिखलाया गया है इसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि के हृदय में विषयों का ऐसा स्वरूप अङ्कित हो चुका है। अतः उसे स्वभाव से ही उनके प्रति अरुचि उत्पन्न हो गई है। सो अब कहते हैं:
सम्यग्दृष्टि के विषय सुख की अभिलाषा नहीं है
सूत्र १०२६ से १०४४ तक १९ सर्वं तात्पर्यमन्तद् दुःखं यत्सुरवसंज्ञकम् । दुःखस्यानात्मधर्मत्तान्जाभिलाषः सुदृष्टिनां ॥ १०२६ ॥
जैसे मृगजल में से जल नहीं मिलता वैसे ही इन्द्रिय विषयों में से सख प्राप्त नहीं होता।