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प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक
इस पर भी शिष्य को सन्तोष नहीं हुआ।वह पुनः कहता है कि जब यह भेद काल्पनिक ही है तो इसकी आवश्यकता ही क्या है?
शंका एतेन विजा चैक द्रव्यं सम्यक प्रपश्यतरचापि ।
को दोषो यद्वीतेरियं व्यवस्थैव साधुरस्त्विति चेत् ॥ २७॥ अर्थ-( आपकी श्लोक नं. ८ में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार ) इस प्रदेश रूप अंश कल्पना के बिना केवल एक अखण्ड निर्विकल्प द्रव्य को ही भले प्रकार देखने वाले के क्या दोष हैं कि जिस (दोष) के भय से यह देशांश की व्यवस्था ही ठीक है यदि तुम्हारी ऐसी आशंका है तो -
समाधान २८-२९-३० देशाभावे नियमात्सत्वं द्रव्यस्य न प्रतीयेत ।
देशांशाभावेऽपि च सर्वं स्यादेकदेशमानं वा ॥२८॥ अर्थ- यदि देश ही न माना जाय ( प्रदेश ही न माने जावें) तो नियम से द्रव्य की सत्ता का ही निश्चय नहीं हो सकेगा और देशांशों के न मानने पर सब द्रव्य मात्र एक-एक प्रदेशी होंगे। ___ भावार्थ-देश के मानने से द्रव्य है ऐसा परिज्ञान होता है। देशांशों के मानने से द्रव्य की इयत्ता (परिमाण) का ज्ञान होता है। जितने जिस द्रव्य के अंश होते हैं वह द्रव्य उतना ही बड़ा समझा जाता है। यदि देश के अंशों ( विस्तार क्रम) की कल्पना न की जाय तो सभी द्रव्य समान समझे जावेंगे। अंश विभाग न होने से सब ही का एक ही अंश (एक प्रदेश) समझा जायेगा।
तनासरचे वस्तुनि न श्रेयस्तस्य साधकाभावात् ।
एवं चैकांशत्वे महतो व्योक्नोऽग्रतीयमानत्वात् ॥२९॥ अर्ध- वस्तु को असत् ( अभाव ) रूप स्वीकार करना ठीक नहीं है क्योंकि वस्तु असत् स्वरूप सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है। इसी प्रकार ( वस्तु में अंश भेद न मानने से अर्थात् ) एक प्रदेशी वस्तु मानने से आकाश की महानता का ज्ञान नहीं हो सकेगा। वह एक प्रदेश मात्र हो जायेगा। __भावार्थ-वस्तु में जब अंशों की कल्पना की जाती है तब तो यह बात सिद्ध हो जाती है कि जिस वस्तु के जितने अधिक अंश हैं वह उतनी ही बड़ी है। जिसके जितने कम अंश हैं वह उतनी ही छोटी है। आकाश के सब वस्तुओं से अधिक अंश हैं इसलिये वह सबसे महान ठहरता है। यदि देशांशों की कल्पना को उठा दिया जाये तो छोटे-बड़े का भेद भी उठ जायगा।
किं चैतदंशकल्पनमपि फलवत्स्याहातोऽनुमीयेत ।
कायत्तमाकायत्वं द्रव्याणामिह महत्वममहत्त्वम् ॥ ३०॥ अर्थ-तथा अंशकल्यना से यह भी फल होता है कि उससे द्रव्यों में कायत्व और अकायत्व का अनमान कर लिया जाता है जैसे - आत्मा और काल । इसी प्रकार छोटे और बड़े का भी अनुमान कर लिया जाता है जैसे- आत्मा और आकाश।
भावार्थ-जिन द्रव्यों में बहुत प्रदेश होते हैं वे अस्तिकाय समझे जाते हैं और जिनमें केवल एक ही प्रदेश होता है वह अस्तिकाय नहीं समझा जाता। बहुप्रदेश और एकप्रदेश का ज्ञान तभी हो सकता है जब कि उस द्रव्य के प्रदेशों (अंशों) की जुदी-जुदी कल्पना की जाय। बिना जुदी-जुदी कल्पना किये प्रदेशों की न्यूनाधिकता का बोध भी नहीं हो सकता और बिना न्यूनाधिकता का बोध हुये द्रव्यों में कौन द्रव्य छोटा है और कौन बड़ा है यह परिज्ञान भी नहीं हो सकता। इसलिये ये अंशों की कल्पना सफल है।