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ही भरत का विजेता मन, स्वतः मान के शिखर से उतरकर सामान्य हो गया । क्षण-भर के लिए अन्तर्मुखी होकर वे विचारने लगे—
'इस भूमि को अगणित बार अगणित भूमिपालों ने अपनी सम्पत्ति घोषित किया। इस पर अपने स्वामित्व की गाथाएँ अंकित कीं । परन्तु इस भूमि ने स्वयं कभी किसी का स्वामित्व स्वीकार नहीं किया । यहाँ जो भी आया उसके प्रयत्नों को बालक्रीड़ा-सा मानकर इस पृथ्वी ने उदारता से सहा, प्रतिरोध में कभी कुछ नहीं कहा। परन्तु काल के थपेड़ों में मरण-शील मानव की सारी जय-यात्राएँ सूखे पत्ते -सी उड़ती रहीं । मृत्यु के आघात ने एक दिन हर शिलांकन को मिथ्या प्रमाणित कर दिया, फिर भी आज मेरी विजय यात्रा के चार अक्षर इस विशाल पर्वत पर चार अंगुल स्थान के आकांक्षी होकर तड़प रहे हैं । यह है संसार की गति, और ऐसी है मानव की निरीहता !'
भरत का चिन्तन भंग करते हुए शिल्पी ने निवेदन करने का साहस किया
'सामने की उस उन्नत शिला पर थोड़ी-सी पंक्तियाँ ही अंकित हैं, उन्हें मिटाकर उसी शिला पर स्वामी का प्रशस्ति - लेख शोभा प्राप्त करेगा । सेवक आदेश का आकांक्षी है ।
'मैं भगवान् ऋषभदेव का पुत्र भरत चक्रवर्ती हूँ ।' इस संक्षिप्त प्रशस्ति से अधिक एक अक्षर भी वहाँ उत्कीर्ण कराने का उत्साह भरत के मन में नहीं था, परन्तु सम्राट् के अमात्यों ने एक विशाल, प्रशस्तिलेख की रचना कर ली थी । अत्यन्त निरपेक्ष भाव से 'तथास्तु' कहकर भरत पास की ही एक चट्टान पर बैठ गये । उनका मन अशान्त और उद्विग्न हो उठा था। इतनी बड़ी दिग्विजय यात्रा में किसी ने उनके बल, विक्रम को चुनौती नहीं दी । किसी ने उनके अहम् को ललकारने का दुस्साहस नहीं दिखाया । यदि कोई ऐसा करता भी तो उसे तत्काल ही अपनी धृष्टता का परिणाम भुगतना पड़ जाता । परन्तु यहाँ, इस सूने पर्वत पर, ये जड़ शिलाखण्ड, उनके अहम् को जो चुनौती दे रहे हैं क्या इसका कोई प्रतिकार है ? अतीत के ये अनगिनते शिलालेख भरत जैसे असंख्य विजेताओं की क्षणभंगुर विजय पर जिस व्यंग्य से मुस्करा रहे हैं, क्या उस व्यंग्य का कोई निराकरण है ?
शिला पर अलंकार-युक्त भाषा में प्रशस्ति का अंकन पूरा हुआ । सेनापति ने चन्दन, रोली और अक्षत चढ़ाकर उस प्रशस्ति के अमरत्व की कामना की । चक्रवर्ती के हाथों से भी तन्दुल के कुछ दाने उस शिलांकन
७० / गोमटेश - गाथा