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पाकर धरती की स्रजनशील उर्वरता अनन्तगुनी होकर जाग्रत हो गयी। धरती पर बरसती हुई जलधार से सारी सृष्टि जीवन्त और प्रसव-धर्मा हो उठी। अब उस पर फलों, पुष्पों, धान्यों और औषधियों के अनन्त अंकूर, पग-पग पर फूटने लगे।
युग के इस संधिकाल में क्रमशः बड़े-बड़े प्राकृतिक परिवर्तन होते रहे । वन्यपशु, हिन्स्र और भयानक हो उठे। मनुष्य ने उन्हें बन्धन, दण्ड अंकुश और बल्गा के सहारे अनुशासित करके भय का निवारण किया। अनेकों को उसने अपना आज्ञाकारी बनाकर अपनी सेवा में नियोजित कर लिया। धीरे-धीरे कल्प-वृक्षों की फलदान शक्ति क्षीण होती गई और एक दिन वे विलुप्त ही हो गये। __ अब तक तो प्रत्येक दम्पती अपने जीवन के अन्तिम दिनों में एक युगल सन्तति को जन्म देकर ही सृजन का दायित्व पूरा कर लेते थे। अब स्वतः उस प्रक्रिया में विविधता का समावेश हुआ। अब माता-पिता को अनेक सन्तानों का जन्मदाता बनना पड़ा। उनके लालन-पालन की, संयोजना भी उन्हें स्वयं करनी पड़ी। माता-पिता को रुग्ण, असक्त और अन्त-समय की दारुण स्थिति में सन्तान की सेवा भी आवश्यक लगने लगी। मनुष्य को अपने इन नवीन दायित्वों का निर्वाह करने के लिए पदार्थों के संग्रह की आवश्यकता प्रतीत हुई, फिर उस संग्रह की सुरक्षा के उपाय भी उसे ढूँढ़ना पड़े।
जीवन पद्धति में इस संक्रमण से मानव समाज को कृछ सर्वथा नवीन अनुभव हुए। भय, आतंक और असुरक्षा के अभिशाप पहली बार उसने भोगे। परिग्रह आया तब उसके साथ हो उसके संकलन के लिए, और उसकी रक्षा के लिए विवाद और संघर्ष प्रारम्भ हुए। हिंसा, झूठ और चोरी की भावना का प्रादुर्भाव हुआ। अधिक सन्तति के जन्म के कारण, तथा स्त्री और पुरुष की पृथक् उत्पत्ति और असमय मृत्यु के कारण, अनेक स्त्री-पुरुषों के जीवन में एक से अधिक जीवन-संगी आने लगे। इसके फलस्वरूप मष्नुय के दाम्पत्य में कुशील तथा व्यभिचार का समावेश हुआ। उसी समय समाज की सामान्य व्यवस्था के लिए, और मर्यादा की रक्षा के लिए कुलों की स्थापना करके, लोगों ने स्वतः अपने लिए शासन-व्यवस्था का आविष्कार किया।
कुलकर व्यवस्था
देश-काल के परिवर्तन एक साथ नहीं आये। धीरे-धीरे एक दीर्घ समयाविधि में ये प्रकट हुए। अनेक पीढ़ियों के संक्रान्ति-काल के पश्चात,
गोमटेश-गाथा | ६१